मुगलों और अन्य सुलतानों की स्तुति के लिए इतिहास की पुस्तकों में पुण्यश्लोका देवी अहिल्याबाई को अनदेखा ही किया गया और इतिहास में उनके योगदान पर पर्दा डाल दिया गया. अब उनके 300वें जयंती वर्ष के माध्यम से अहिल्याबाई के असाधारण व्यक्तित्व को समझने का प्रयास ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
देवी अहिल्याबाई का व्यक्तित्व अपने आप में ही गत दशकों में गढ़े गए भ्रामक विमर्श को धराशायी करता है. वे स्त्री थी, विधवा थी और तथाकथित उच्च जाति वर्ग से नहीं थी. इसके बावजूद, गढ़ी गई तमाम धारणाओं के विपरित, स्वतन्त्र थीं, सुशिक्षित थीं, प्रशिक्षित थीं और कथित पुरुष वर्चस्व समाज में ससम्मान स्वीकृत भी थीं.
देवी अहिल्याबाई अत्यंत कुशल और योग्य प्रशासक थीं. उन्होंने तीस वर्ष के लम्बे कालखंड तक मालवा पर राज किया और सुशासन के नए प्रतिमान खड़े किए. माता अहिल्या के पति खांडेराव होलकर का निधन एक युद्ध के दौरान 1754 में हो गया था. इसके बाद उनके श्वसुर और होलकर साम्राज्य के निर्माता मल्हारराव होलकर ने उन्हें राजनीति, युद्धनीति और कूटनीति का प्रशिक्षण देना प्रारंभ किया. 1766 में मल्हारराव होलकर की मृत्यु के पश्चात मालवा की सत्ता के सारे सूत्र देवी अहिल्याबाई के हाथों में आ गए. उस समय तक छत्रपति शिवाजी महाराज, छत्रपति सम्भाजी महाराज, बाजीराव पेशवा और अन्य मराठा वीरों के साहस और पराक्रम के बल पर मराठे देश की सबसे बड़ी सत्ता बन चुके थे. मुगल एक प्रतीकात्मक शक्ति भर बचे थे, पुर्तगाली परास्त हो चुके थे और अंग्रेज एक शक्ति बनने की प्रक्रिया के प्रारंभिक दौर में थे. मध्य और उत्तर भारत के एक बहुत बड़े क्षेत्र पर होलकरों का अधिपत्य था. जाहिर है उस क्षेत्र की कर वसूली के अधिकार भी होलकरों के पास थे.
राजमाता अहिल्या देवी ने इस शक्ति और संपन्नता का उपयोग राज्य के उत्थान और धर्म की पुनर्स्थापना में किया. वे स्वयं अत्यन्त सामान्य जीवन शैली से जीवन यापन करती रहीं. राजसी ठाठ-बाठ और भव्य राजप्रासाद के स्थान पर उन्होंने अपना धन विगत सदियों में मुगलों द्वारा नष्ट भ्रष्ट किए देश भर के सनातनी तीर्थ स्थलों के पुनर्निर्माण और तीर्थयात्रियों हेतु सुविधाएं विकसित करने में लगाया. चाहे काशी विश्वेश्वर मन्दिर का नवनिर्माण हो, या बद्रीनाथ धाम का सुवर्ण कलश हो, रामेश्वर हो या बिहार में गया तीर्थ हो, पश्चिम में द्वारिका हो पूर्व में जगन्नाथ पुरी हो, पूरे देश के महत्वपूर्ण तीर्थस्थलों पर देवी अहिल्याबाई का विराट योगदान रहा.
इन निर्माण कार्यों का महत्व मात्र तीर्थ स्थलों का पुनरुद्धार भर नहीं था, इन कार्यों से सनातन हिन्दू समाज का आत्मसम्मान भी पुनर्जागृत हुआ. विगत कुछ सदियों से हिन्दू समाज अपने तीर्थों का अपमान और विध्वंस ही देख रहा था. उन्हीं तीर्थों का पुनरुद्धार युग के परिवर्तन का प्रतीक था. मन्दिर बचाने की जगह मन्दिर निर्माण समाज के लिए क्या अर्थ रखता होगा, यह समझने के लिए हमें उस युग की कल्पना करनी होगी. जब अपने स्वयं के घर में पूजा करना भी कठिन हो गया था.
देवी अहिल्याबाई ने तीर्थ स्थलों के पुनरुद्धार के अतिरिक्त आम जनता की सुविधा के लिए भी अनेक योजनाएं क्रियान्वित कीं. राजधानी महेश्वर में उन्होंने कपड़ा उद्योग को नई दिशा और नया आकार दिया और आज भी महेश्वरी साड़ियां शौक से खरीदी व पहनी जाती हैं. किसानों के लिए तालाब आदि निर्मित कर सिंचाई सुविधाओं का विकास किया तो धर्मशालाएं, कुएं, बावड़ियां और प्रशस्त मार्ग बनवाकर आम जनता के जीवन को भी सुगम बनाया.
राजमाता अहिल्याबाई के विराट व्यक्तित्व को एक लेख भर में बांधा ही नहीं जा सकता. गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने घोषणा की है कि “धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे”. निश्चय ही अपने युग में माता अहिल्याबाई ही इस कार्य के लिए चुनी गई व्यक्तित्व थीं. माता अहिल्याबाई का जीवन उदाहरण है कि सत्ता और ऐश्वर्य मिलने पर उसका सदुपयोग कैसे किया जाता है.