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जनजातीय समाज में दीपावली

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वनों में चौदह वर्ष असुविधा व कठिनाई भरा जीवन व्यतीत करने के उपरांत

भगवान श्रीराम का अयोध्या वापस लौटने की प्रसन्‍नता का पर्व दीपावली है।

दीपावली का पर्याय अंधकार पर प्रकाश की विजय है। इसका आशय अज्ञानता

पर ज्ञान का विजय से है। दीपावली का यह भाव ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ अर्थात्

‘अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए’ उपनिषद वाक्य है।

हिन्दू संस्‍कृति में यह त्यौहार शरद ऋतु में प्रति वर्ष धूमधाम से मनाया जाता है।

भारत के विभिन्न वनवासी क्षेत्रों में भी अनेक जनजाति समाज में यह त्‍यौहार

धूमधाम से मनाने की परंपरा है, जिन्हें विभाजनकारी तत्व अहिन्दू परिभाषित

करने का षड्यंत्र करते हैं।

मध्यप्रदेश की जनजातियों में दीपावली मनाने की परंपरा-विधि ग्रामीण व

नगरीय हिन्दुओं के समान ही है। कहीं-कहीं विविधता है तो इसका यह आशय

नहीं है कि वे हिन्दू नहीं हैं और अलग हैं। उत्सवों में विविधता इस बात की

परिचायक है कि ‘हिन्दुओं में आंतरिक लोकतंत्र है।’

दीपावली का उद्भव

वनवास के पश्चात श्रीराम के वापस अयोध्या लौटने की खुशी में, उनके स्वागत में

अयोध्यावासियों ने घी के दीये जलाए थे। कार्तिक मास की सघन काली

अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी थी। उसी के बाद

भारतीय जनमानस प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाता है।

अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार, यह पर्व प्रत्येक वर्ष अक्टूबर या नवंबर महीने में

पड़ता है। प्रसंगवश जनजातीय समाज में दीपावली मनाने की परंपरा पर कुछ

तथ्य निम्नलिखित है –

भील जनजाति की दीपावली

भील-भिलाला लोग कार्तिक मास कृष्ण त्रयोदशी से दीपावली मनाना

प्रारम्भ करते हैं। दीपावली से कुछ दिन पहले अपना घर गोबर और मिट्टी

से लीपते (रंगते) हैं।

भील लोग दीपावली दो बार मनाते हैं, पहला कार्तिक मास की धनतेरस

से अमावस्‍या तक तथा दूसरा (पछलि दीपावली) कार्तिक मास शुक्‍ल पक्ष

में तेरस से पूर्णिमा तक।

भील परिवार के लोग अमावस्या के दिन प्रात: देवी लक्ष्मी व नये अनाज

का पूजन करते हैं। पूरे दिन आतिशबाजी करते हैं। शाम में दीपक जलाकर

दरवाजे, अनाज की कोठरी, गोहाल व रसोई घर सहित अन्य सामाजिक

सार्वजनिक स्थानों पर रखते हैं।

भील समाज में चतुर्दशी को चौदस या काली चौदस ​कहते हैं। इस दिन

सहित अमावस्या की रात्रि को बड़वा (पुजारी/तांत्रिक) व उनके शिष्य

तांत्रिक सिद्धियाँ करते हैं।

भीलों का विश्वास है कि दीपावली की अमावस्या वाली रात में मंत्र-तंत्रों

के जाप व प्रयोग से अभूतपूर्व सफलता व सिद्धि मिलती है। उल्‍लेखनीय है

कि ऐसी ही मान्‍यता देश के अनेक अंचलों में दिखाई पड़ती है।

अमावस्या यानी दीपावली के दूसरे दिन (पड़वा) सूर्योदय के पूर्व घर के

अहाते में अग्नि लगाई जाती है। उत्तर प्रदेश व बिहार के शहरी व ग्रामीण

क्षेत्रों में दरिद्र खेदना/भगाना कहा जाता है। ध्‍यान देना होगा कि उत्‍तर

प्रदेश, बिहार, झारखंड आदि प्रांतों में भी यह परंपरा प्रचलित है।

अग्नि लगाने के बाद महिलाएँ स्नान-ध्यान करके गाय के गोबर से बने

गोवर्धन का पूजन करती हैं। मवेशियों को फूल-माला पहनाकर श्रृंगार

करती हैं, उनके सींग गेरू से रंगते हैं।

गोवर्धन पूजन और मवेशियों को फूल-माला पहनाकर श्रृंगार करने की

परंपरा भी उत्तर प्रदेश व बिहार समेत देश के अन्‍य प्रदेशों के शहरी व

ग्रामीण क्षेत्रों में व्‍यापक रूप में विद्यमान है।

कोरकू जनजाति में दीपावली पर्व

कोरकू जनजाति में भी कार्तिक माह की अमावस्या (पड़वा) को ही

दीपावली मनाई जाती है। कोरकू 'दीवा दावी' करते हैं अर्थात मिट्टी के

दीपक जलाकर गऊ (गाय) की आरती उतारते हैं।

मवेशियों के खूरों में होने वाली बीमारी से बचाव के लिये कोरकू जनजाति

के लोग गाय-बैल की पूजा करते हैं। ग्वाल देव की भी पूजा होती है। पड़वा

के दिन हनुमान मंदिर में दर्शन के लिये जाते हैं।

रात्रि में भूगड़ू (बाँसुरी जैसा लगभग चार फीट लंबा फूँककर बजाए जाना

वाला वाद्य) पर विभिन्न लोक धुनें बजाकर नृत्य करते हैं।

दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व मवेशियों के शरीर पर विभिन्न रंगों के छाप

हाथों से लगाते हैं।

कोरकू घरों में दीपावली के दिन माँस-मछली नहीं पकता, मीठे पकवान

बनते हैं। गाय, बैल की जूठी खिचड़ी खाने की मान्यता है।

गोंड जनजाति की दीपावली

गोंड जनजाति में दीपावली कहीं-कहीं कार्तिक माह की अमावस्या को ही

सम्पन्न होती है तो कहीं-कहीं कुवार मास की अमावस्या से प्रारंभ होकर

कार्तिक पूर्णिमा तक पन्द्रह दिन तक मनाई जाती है।

गोंड लोग अमावस्या की रात्रि में दौगुन गुरू और अन्न की पूजा करते हैं।

वहीं, मंत्र सिद्धि व गुरू मंत्र लेने के साथ ही औषधियों को जागृत करते हैं।

अगले दिन लक्ष्मी/गोवर्धन पूजा करते हैं।

गोंड जनजाति में मान्यता है कि पृथ्वी पर इसी तिथि को अन्न व लक्ष्मी

(गाय) आये। यह भी मान्यता है कि दौगुन पूजन से ही दीपावली का जन्म

हुआ है। अत: उनकी पूजा दीपावली में की जाती है।

दीपावली के दिन व्रती मुखिया संध्या के समय घर में आटा का चौका पूरते

हैं। गेरु (गेर) से पोते हुए बाँस की टोकनी (टोकरी) में चावल, फूल रखकर

घी का दीया जलाया जाता है। ऐसी पद्धति भारत के विभिन्‍न समाजों में

प्रचलित है।

कुलदेवी, दौगुन गुरू व पूर्वजों के लिये, इसके अलावा घर के विभिन्न

हिस्सों में दीये जलाये जाते हैं। मवेशियों के शरीर पर गेरू (गेर) लगाया

जाता है।

भारिया जनजाति में दीपावली

भारिया जनजाति के लोग भी कार्तिक मास में अमावस्या की रात में ही

दीपावली पर्व मनाते हैं। इस अवसर पर मिट्टी व आँटा से बने पाँच दीये

जलाकर लक्ष्मी व धन पूजन होती है।

 भारिया लोग अहिराई झूमर पहनकर प्रत्येक घर को एक दीप दान करते

हैं, इसके बदले उन्हें नेग मिलता है। अगले दिन सुबह की बेला में खिचड़ी-

तिल्ली का सेवन करते हैं।

दीपावली के तीसरे दिन आँगन में गोवर्धन पूजा होती है। महिलाएँ

गोवर्धन गीत गायन करती हैं। मवेशियों के शरीर पर गेरू (गेर) लेपन

करते हैं।

बच्चे दोहरा गीत गाकर प्रत्येक घर में जाकर गोंदा फूल या झूमर देते हैं।

दोहरा गीत –

ऊँचो उसारी, ओ ऊँचो राहुल, तुम्हारों रे नाव।

नावन सुन-सुन हम आये दादी, दरसन दइयो बनाय रे

उई-ई…………………………..

कट-कट तेरी टकिया बाजी रे, धुकुर फुकर जीव होय।

खोल बड़ी बहू की बटुआ रे, अहिरा को कर दे दान रे।

उई-ई…………………………..

कोल जनजाति

हिन्दुओं व अन्य जनजातियों की तरह ही कोल जनजाति के लोग भी

दीपावली मनाते हैं।उपर्युक्त सभी जनजातियों की दीपावली की मुख्य बात यह है कि सभी में

दीपावली मनाने की परंपरा एक ही जैसी है। वनवासियों के इस त्यौहार में भी

प्रकृति व जीव के प्रति अथाह श्रद्धा का वही भाव व्‍याप्‍त है जो शेष नगरीय व

ग्राम्‍य समाज में देखा जाता है।

संदर्भ सूची :-

 कोरकू देवलोक :- लेखक- डॉ. धर्मेन्‍द पारे

प्रकाशन – आदिवासी लोक कला अकादमी मध्‍यप्रदेश संस्‍कृति परिषद

भील देवलोक :- लेखक – भानुशंकर गोहलोत, डॉ. धर्मेन्‍द पारे

प्रकाशन – आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी मध्‍यप्रदेश संस्‍कृति परिषद

गोंड देवलोक :- लेखक – डॉ. धर्मेन्‍द पारे

प्रकाशन – आदिवासी लोक कला एवं तुलसी साहित्‍य अकादमी मध्‍यप्रदेश संस्‍कृति परिषद

सम्‍पदा :- प्रधान सम्‍पादक – वन्‍दना पाण्‍डेय, सम्‍पादक – अशोक मिश्रप्रकाशन – आदिवासी लोक कला एवं बोली विकास अकादमी मध्‍यप्रदेश संस्‍कृति परिषद