कबीर व्यक्ति नहीं अपितु एक समग्र दर्शन का नाम है। एक ऐसी चिंतन पद्धति जो “अणु में विभु” और “गागर में सागर” समेटे हुए है। संत कबीर के पद और साखियां थोड़े में बहुत कुछ कहने की क्षमता रखती हैं। अध्यात्म का तत्वज्ञान उनका मुख्य विषय प्रतिपाद्य है। वेदान्त के गूढ़ रहस्यों को उन्होंने अपने पदों के द्वारा जनभाषा में बेहद कुशलता से समझाया है। एक निर्धन जुलाहा परिवार में पलकर कैसे महानता के शिखर को छुआ जा सकता है; यह महात्मा कबीर के व्यक्तित्व से सहज ही सीखा जा सकता है। कबीर साहित्य में जहां वेदांत के तत्व ज्ञान, माया, प्रेम और वैराग्य की गूढ़ता मिलती है, वहीं समाज सुधार का प्रखर शंखनाद भी है। दर्शन के इस महामनीषी की वाणी में अंधविश्वास व कुरीतियों के खिलाफ मुखर विरोध दिखता है। जनजीवन का उत्थान ही उनकी जीवन साधना थी।
कबीर का युग सामाजिक विषमताओं का युग था, विदेशी आक्रान्ताओं का काल था। वे मध्यकाल के अंधयुग में अपने ज्ञान का आलोक लेकर जन्मे थे। विक्रमी संवत् 1455 को ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन काशी के लहरतारा नामक स्थान में उनका जन्म हुआ। उनके समय में सिकन्दर लोदी का शासन था। मुगल शासन में निर्दोष जनता पर क्रूर अत्याचार होते थे। धर्म के ठेकेदार अंधविश्वास को बढ़ावा दे रहे थे। कबीर ने अपने तीखे प्रहारों से पंडों व मौलवियों दोनों के दिखावों की धज्जियां उड़ा दी थीं। कबीर की वाणी का तीखा और अचूक व्यंग्य विशुध्द बौध्दिकता की कसौटी पर पूरी तरह खरा उतरता है। वे कहते हैं –
कांकर पाथर जोरि के मसजिद ली चिनाय।
ता चढ़ मुल्ला बांग दे क्या बहिरा हुआ खुदाय।।
तीखे प्रहारों के बावजूद कबीर के स्वर में विद्रोह, हीनता, द्वेष, आत्मश्लाघा तथा वैमनस्य का भाव जरा भी नहीं दिखता। उनकी वाणी में एक आत्मविश्वास है स्वयं की आत्मा को तमाम विषमताओं के बीच शुध्द रखने का। तभी तो वे सुर नर मुनि सभी को आत्मिक शुध्दता को चुनौती देते हुए कह उठते हैं-
झीनी झीनी बीनी चदरिया।
इंगला-पिंगला ताना भरनी,
सुषमन तार से बीनी चदरिया।
आठ कंवल दस चरखा डोलै,
पांच तत्व गुन तीनी चदरिया।
जाको सियत मास दस लागे,
ठोक ठोक कर बीनी चदरिया।
सो चादर सुर नर मुनि ओढ़ी,
ओढ़ि के मैली कीनी चदरिया।
दास कबीर जतन जतन सौं ओढ़ी,
ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया।
कबीर के चिंतन में उपनिषदों के “माया” संबधी विचारों का गहरा प्रभाव परिलक्षित होता है। जिस तरह आचार्य शंकर “माया महा ठगिनी” कह कर आत्मपथ के जिज्ञासुओं को सांसारिक लोभ लालच से निर्लिप्त रहने की सलाह देते हैं, उसी तरह संत कबीर भी जगत को मिथ्या मानकर कहते हैं कि परमात्मा से विलग होकर आत्मा जगत के मोह-माया में लिप्त होकर अज्ञानवश भटकती रहती है-
माया दीपक नर पतंग भ्रमि भ्रमि इवैं पडंत
कहे कबीर गुरु ग्यान से एक आध उबरंत।
कबीर कहते हैं कि माया बुद्धि को भ्रमित कर जीवात्मा-परमात्मा में द्वैत का भाव उत्पन्न कर देती है। काम, क्रोध, मद, मोह और मत्सर नामक इसके पांच पुत्र हैं जो सांसारिक जीवों को तरह-तरह से सताते हैं। इनका असर इतना गहरा होता है कि शरीर की समाप्ति के बाद भी इनके संस्कार समाप्त नहीं होते। माया रूपी फंदे से केवल गुरु कृपा ही बचा सकती है। इसीलिए उन्होंने गुरु को ईश्वर से भी ऊंचा “बलिहारी गुरु आपने जिन गोविन्द दियो बताय” कह कर गुरु की अभ्यर्थना की। जानना दिलचस्प होगा कि कबीर के गुरु आचार्य रामानंद सगुण राम के उपासक थे जबकि कबीर ने अविनाशी राम के; वेदान्त के परब्रह्म की तरह अगम, अगोचर, अरूप, अनाम, निराकार तथा निरंजन। उन्होंने वेदान्त से अद्वैतवाद व माया का तत्वदर्शन तो आत्मसात किया ही; सिद्धों तथा नाथ योगियों की योग साधना तथा हठयोग को ग्रहण किया और वैष्णव मत से अहिंसा तथा “प्रपत्ति” भाव। इस प्रकार कबीर ने “सार-सार” को ग्रहण किया तथा जो कुछ भी “थोथा” लगा, उसे उड़ा दिया। राम तत्व के मर्म को व्याख्यायित करते हुए वे आगे कहते हैं-
कस्तूरी कुंडली बसै, मृग ढूंढै बन माहि।
ऐसे घट-घट राम हैं, दुनिया देखत नाहीं।।
उनके “राम” कस्तूरी की सुगंध के सामान सूक्ष्म हैं और हर किसी के अंतर में उसका निवास है पर अज्ञानी मनुष्य उन्हें वनों और गुफाओं में तलाश रहा है। उनका संवेदनशील मन भ्रम जाल में उलझे संसार की पीड़ा को देख कर कराह उठता है-
चलती चक्की देखि के दिया कबीरा रोय।
दुई पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
भक्त कबीर के दोहे “गागर में सागर” के समान हैं। इनमें अद्भुत शिक्षण है, विलक्षण नीतिमत्ता है और सहज प्रेरणा भी। संत कबीर के इन जीवन सूत्रों को जीवन में उतार कर कोई भी निर्विकार और आनन्दपूर्ण संतोषी जीवन जी सकता है। वे कहते हैं –
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।।
धैर्य व संयम की सीख देते हुए संत कबीर मनुष्य को सतत आशावान रहने की प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं कि मन में धीरज रखने से सब कुछ संभव हो सकता है। जैसे कोई माली किसी पेड़ को रोज सौ घड़े पानी से सींच दे पर फल तो उसमें अनुकूल ऋतु आने पर ही लगेगा-
धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय।
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।।
कबीर की लोकमंगल की भावना उन्हें विशिष्ट बनाती है। वे अपने जीवन में बस यही चाहते हैं कि सबका भला हो –
कबीरा खड़ा बजार में, मांगे सबकी खैर।
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर।।
अनियंत्रित सांसारिक कामनाएं और चिंताएं ही कष्टों की जड़ हैं। जिसने इन कामनाओं पर विजय पा ली; वस्तुतः वही इस संसार का राजा है-
चाह मिटी चिंता मिटी मनवा बेपरवाह।।
जाको कछु नहिं चाहिए सो शाहन को शाह।।
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कबीर को “वाणी का डिक्टेटर” अकारण ही नहीं कहा। सचमुच उनकी अभिव्यक्ति सामर्थ्य और रहस्यवाद को सरल शब्दों के माध्यम से प्रस्तुत करने का उनका ढंग अद्वितीय है। कबीर एक गहरे अनुभव का नाम है, जिसमें सब कुछ समा जाता है। कबीर एक समाधि हैं, जहां सभी का समाधान हो जाता है। कबीर उस किलकारती गंगा के समान हैं जो बह तो सकती है परंतु ठहर नहीं सकती और न एक घट में समा सकती है। कबीर की गति परिधि से केंद्र की ओर है और अवस्था उस महाशून्य के सदृश्य है, जिसमें सभी हैं और जो सभी में हैं। उनकी उलटबांसियां अनूठी हैं। शब्द अबोल-अनमोल हैं जिन्हें बुद्धि सीमा में नहीं बांधा जा सकता।
Courtesy : PANCHAJANYA