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श्री विजयादशमी उत्सव के अवसर पर प. पू. सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी का उद्बोधन

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 ।।ॐ।।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ
प. पू. सरसंघचालक डॉ. श्री मोहन जी भागवत द्वारा
विजयादशमी उत्सव के अवसर पर दिये उद्बोधन का सारांश
(आश्विन शुद्ध दशमी, मंगलवार दि. 24 अक्तूबर 2023)

आज के कार्यक्रम के प्रमुख अतिथि आदरणीय श्री शंकर माहादेवन जी, मंच पर उपस्थित मा. सरकार्यवाह जी, विदर्भ प्रांत के मा. संघचालक, नागपुर महानगर के मा. संघचालक, नागपुर महानगर के मा. सह संघचालक, अन्य अधिकारी गण, नागरिक सज्जन, माता भगिनी तथा आत्मीय स्वयंसेवक बन्धु ।
दानवता पर मानवता की पूर्ण विजय के शक्ति पर्व के नाते प्रतिवर्ष हम विजयादशमी का उत्सव मनाते हैं । इस वर्ष यह पर्व हमारे लिए गौरव, हर्षोल्लास तथा उत्साह बढ़ानेवाली घटनाएँ लेकर आया है ।

बीते वर्षभर हमारा देश जी-20 नामक प्रमुख राष्ट्रों की परिषद का यजमान रहा । वर्षभर सदस्य राष्ट्रों के राष्ट्रप्रमुख, मंत्रीगण, प्रशासक तथा मनीषियों के अनेक कार्यक्रम भारत में अनेक स्थानों पर सम्पन्न हुए । भारतीयों के आत्मीय आतिथ्य का अनुभव, भारत का गौरवशाली अतीत तथा वर्तमान की उमंगभरी उड़ान सभी देशों के सहभागियों को प्रभावित कर गई । अफ्रीकी यूनियन को सदस्य के नाते स्वीकृत कराने में तथा पहले ही दिन परिषद का घोषणा प्रस्ताव सर्व सहमति से पारित करने में भारत की प्रामाणिक सद्भावना तथा राजनयिक कुशलता का अनुभव सबने पाया । भारत के विशिष्ट विचार व दृष्टि के कारण संपूर्ण विश्व के चिंतन में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की दिशा जुड़ गई । जी -20 का अर्थकेन्द्रित विचार अब मानव केन्द्रित हो गया । भारत को विश्व के मंच पर एक प्रमुख राष्ट्र के नाते दृढ़तापूर्वक स्थापित करने का अभिनंदनीय कार्य इस प्रसंग के माध्यम से हमारे नेतृत्व ने किया है।

इस बार हमारे देश के खिलाड़ियों ने आशियाई खेलों में पहली बार 100 से अधिक – 107 पदक (28 सुवर्ण, 38 रौप्य तथा 41 कांस्य) जीतकर हम सब का उतसाह वर्धन किया है । उनका हम अभिनन्दन करते है । उभरते भारत की शक्ति, बुद्धि तथा युक्ति की झलक चंद्रयान के प्रसंग में भी विश्व ने देखी । हमारे वैज्ञानिकों के शास्त्रज्ञान व तन्त्र कुशलता के साथ नेतृत्व की इच्छाशक्ति जुड़ गई । चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर अंतरिक्ष युग के इतिहास में पहली बार भारत का विक्रम लैंडर उतरा । समस्त भारतीयों का गौरव व आत्मविश्वास बढ़ानेवाला यह कार्य सम्पन्न करनेवाले वैज्ञानिक तथा उनको बल देनेवाला नेतृत्व संपूर्ण देश में अभिनंदित हो रहा है।

संपूर्ण राष्ट्र के पुरुषार्थ का उद्गम उस राष्ट्र का वैश्विक प्रयोजन सिद्ध करनेवाले राष्ट्रीय आदर्श होते हैं । इसलिए हमारे संविधान की मूल प्रति के एक पृष्ठ पर जिनका चित्र अंकित है ऐसे धर्म के मूर्तिमान प्रतीक श्रीराम के बालक रूप का मंदिर अयोध्याजी में बन रहा है । आनेवाली 22 जनवरी को मंदिर के गर्भगृह में श्रीरामलला की प्राण प्रतिष्ठा होगी यह घोषणा हो चुकी है । व्यवस्थागत कठिनाइयों के तथा सुरक्षाओं की सावधानियों के चलते उस पावन अवसर पर अयोध्या में बहुत मर्यादित संख्या ही उपस्थित रह सकेगी । श्रीराम अपने देश के आचरण की मर्यादा के प्रतीक है, कर्तव्य पालन के प्रतीक है, स्नेह व करुणा के प्रतीक है । अपने-अपने स्थान पर ही ऐसा वातावरण बने । राम मंदिर में श्रीरामलला के प्रवेश से प्रत्येक ह्रदय में अपने मन के राम को जागृत करते हुए मन की अयोध्या सजे व सर्वत्र स्नेह, पुरुषार्थ तथा सद्भावना का वातावरण उत्पन्न हो ऐसे, अनेक स्थानों पर परन्तु छोटे छोटे आयोजन करने चाहिए ।

शताब्दियों की संकट परंपरा से जूझकर यशस्वी होकर अब हमारा भारत भौतिक व आध्यात्मिक उन्नति के पथ पर निश्चित रूप से आगे बढ़ रहा है, इसका संकेत देनेवाली इन घटनाओं के हम सब सौभाग्यशाली साक्षी हैं ।
सम्पूर्ण विश्व को अपने जीवन से अहिंसा, जीवदया व सदाचार सिखाने वाला सत्पथ देनेवाले श्री महावीर स्वामी का 2550 वाँ निर्वाण वर्ष, विदेशियों के 350 साल के थोपे हुए पारतंत्र्य में से मुक्ति का मार्ग हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना तथा न्यायपूर्ण जनहितकारी संचालन के द्वारा दिखाने वाले छत्रपति श्री शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक का 350 वाँ वर्ष तथा अंग्रेजों के पारतंत्र्य से मुक्ति पाने के लिए सम्पूर्ण देश के जनमानस को अपने ‘स्व’ के स्वरूप का स्पष्ट व यथातथ्य दर्शन ‘सत्यार्थ प्रकाश’ द्वारा कराने वाले महर्षी दयानंद सरस्वती का 200 वाँ जन्म जयन्ती वर्ष हम संपन्न कर रहे है ही । आगामी वर्ष इस प्रकार के राष्ट्रीय पुरुषार्थ की शाश्वत प्रेरणा बनी दो विभूतियों का स्मरण वर्ष भी है । अस्मिता व स्वतंत्रता के लिए बलिदान देने वाली, उद्यम, साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति व पराक्रम के साथ साथ अपनी प्रशासन कुशलता व प्रजाहित दक्षता के लिए आदर्शभूत महारानी दुर्गावती का यह 500 वाँ जयंती वर्ष हैं । भारतीय महिलाओं के सर्वगामी कर्तृत्व, नेतृत्व क्षमता, उज्ज्वल शील तथा जाज्वल्य देशभक्ति की वे देदीप्यमान आदर्श थीं ।

ऐसे ही अपनी प्रजाहितदक्षता तथा प्रशासनपटुता के साथ, सामाजिक विषमता के जड़मूल से निर्मूलन के लिए जीवनभर अपनी संपूर्ण शक्ति लगानेवाले कोल्हापुर (महाराष्ट्र) के शासक छत्रपति शाहूजी महाराज का यह 150 वाँ जयंती वर्ष है ।
देश की स्वतंत्रता की अलख जिन्होंने अपने जीवन के यौवनकाल से ही जगाना प्रारंभ किया, गरीबों के अन्नदान कार्यक्रम हेतु जिनका सुलगाया हुआ पहला चुल्हा आज भी तमिलनाडु में प्रदीप्त है और अपना काम कर रहा है, ऐसे तमिल संत श्रीमद् रामलिंग वल्ललार का 200 वाँ वर्ष अभी इसी महीने सम्पन्न हो गया । स्वतंत्रता के साथ-साथ समाज की आध्यात्मिक सांस्कृतिक जागृति तथा सामाजिक विषमता के सम्पूर्ण निर्मूलन के लिए वे जीवनभर कार्य करते रहे ।
इन प्रेरणास्पद विभूतियों के जीवन के स्मरण से हम सभी को अपनी स्वतंत्रता के अमृत महोत्सव के सम्पन्न होने के दिनों में सामाजिक समता, एकात्मता तथा अपने स्व की रक्षा का संदेश प्राप्त होता है ।

अपने स्व को, अपनी पहचान को सुरक्षित रखना यह मनुष्य की स्वाभाविक इच्छा व सहज प्रयास है । द्रुतगति से परस्पर निकट आने वाले विश्व में आजकल सभी राष्ट्रों में यह चिंता करने की प्रवृत्ति बढ़ी है । संपूर्ण विश्व को एक ही रंग में रंगने का, एकरूपता का कोई भी प्रयास अब तक सफल नहीं रहा, न आगे सफल हो सकेगा । भारत की पहचान को, हिंदू समाज की अस्मिता को बनाए रखने का विचार स्वाभाविक तो है ही । आज के विश्व की वर्तमानकालीन समय की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए, अपने स्वयं के मूल्यों पर आधारित, काल सुसंगत, नया रूपरंग लेकर भारत खड़ा हो, यह विश्व की भी अपेक्षा है । मत संप्रदायों को लेकर उत्पन्न हुए कट्टरपन, अहंकार व उन्माद को विश्व झेल रहा है । स्वार्थों के टकराव तथा अतिवादिता के कारण उत्पन्न होने वाले यूक्रेन के अथवा गाझा पट्टी के युद्ध जैसे कलहों का कोई निदान दिख नहीं रहा है । प्रकृतिविरुद्ध जीवनशैली, स्वैरता तथा अनिर्बंध उपभोगों के कारण नई-नई शारीरिक व मानसिक बीमारियाँ उत्पन्न हो रही हैं । विकृतियाँ व अपराध बढ़ रहे हैं । आत्यंतिक व्यक्तिवाद के कारण परिवार टूट रहे है । प्रकृति के अमर्याद शोषण से प्रदूषण, वैश्विक तापमानवृद्धि, ऋतुक्रम में असंतुलन व तज्जन्य प्राकृतिक हादसे प्रतिवर्ष बढ रहे हैं । आतंकवाद, शोषण और अधिसत्तावाद को खुला मैदान मिल रहा है । अपनी अधूरी दृष्टि को लेकर विश्व इन समस्याओं का सामना नहीं कर सकता यह स्पष्ट हुआ है । इसलिए अपने सनातन मूल्यों व संस्कारों के आधार पर, भारत अपने उदाहरण से वास्तविक सुख शांति का नवपथ विश्व को दिखाए यह अपेक्षा जगी है ।

इन परिस्थितियों की एक छोटी आवृत्ति भारत वर्ष में भी हमारे सम्मुख विद्यमान है । उदाहरणार्थ, हाल ही में हिमालय के क्षेत्र में हिमाचल और उत्तराखंड से लेकर सिक्किम तक लगातार प्राकृतिक आपदाओं का प्राणांतिक खेल हम देख रहे हैं । भविष्य में किसी गंभीर व व्यापक संकट का पूर्वाभास इन घटनाओं के द्वारा हो रहा हो ऐसी शंकाओं की चर्चा भी है ।

देश की सीमा सुरक्षा, जल सुरक्षा तथा पर्यावरणीय स्वास्थ्य के लिए भारत की उत्तर सीमा को निश्चित करनेवाला यह क्षेत्र अत्यंत महत्वपूर्ण है, किसी भी कीमत पर सर्वथा रक्षणीय है । सुरक्षा, पर्यावरण, जन सांख्यिकी व विकास की दृष्टि से इस पूरे क्षेत्र को एक इकाई मानकर हिमालय क्षेत्र का विचार करना होगा । यह प्रकृतिरम्य क्षेत्र भूगर्भ शास्त्रीय दृष्टि से नया, अभी भी बनता जा रहा और इसलिए अस्थिर भी है । उसके भूपृष्ठ, भूगर्भ, जैव विविधता व जल संपदा की विशेषता को जाने बिना विकास की मनमानी योजनाएँ क्रियान्वित की गईं । इस खिलवाड़ के फलस्वरूप ही यह क्षेत्र व उसके चलते पूरा देश, संकट के कगार पर आने लगा है । हम सब जानते हैं कि भारत सहित पूर्व व दक्षिण पूर्व एशिया के सभी देशों को जलापूर्ति करनेवाला यही क्षेत्र है । इसी क्षेत्र में भारत की उत्तर सीमा पर चीन की दस्तक कई वर्षों से सुनाई दे रही है । इसलिए इस क्षेत्र का विशिष्ट भूगर्भशास्त्रीय, सामरिक व भूराजकीय महत्व है । उसको ध्यान में रखकर ही इस क्षेत्र का अलग दृष्टि से विचार करना होगा ।

यद्यपि यह घटनाएँ हिमालय क्षेत्र में अधिक घट रही हैं, पूरे देश के लिए उनका एक स्पष्ट संकेत ध्यान में आता है । अधूरी, निपट जड़वादी तथा पराकोटि की उपभोगवादी दृष्टि पर आधारित विकास पथों के कारण, मानवता व प्रकृति धीरे-धीरे परंतु निश्चित रूप से विनाश की ओर अग्रसर हो रही हैं । संपूर्ण विश्व में यह चिंता बढी है । उन असफल पथों को त्याग कर अथवा धीरे-धीरे वापिस मोड़कर भारतीय मूल्यों पर तथा भारत की समग्र एकात्म दृष्टि पर आधारित, काल सुसंगत व अद्यतन, अपना अलग विकास पथ भारत को बनाना ही पड़ेगा । यह भारत के लिए सर्वथा उपयुक्त तथा विश्व के लिए भी अनुकरणीय प्रतिमानक बन सकेगा । घिसीपिटी असफल राह पर बने रहने की, अंधानुकरण, जड़ता व पोथी निष्ठता की प्रवृत्ति छोड़नी पड़ेगी । उपनिवेशी मानसिकता से मुक्त होकर, विश्व से जो देशानुकूल है वही लेना पड़ेगा । अपने देश में जो है उसको युगानुकूल बनाते हुए, हम अपना स्व आधारित स्वदेशी विकासपथ अपनाएँ, यह समय की आवश्यकता है । इस दृष्टि से कुछ नीतिगत परिवर्तन पिछले दिनों हुए है यह ध्यान में आता है । समाज में भी कृषि, उद्योग और व्यापार के, तत्संबंधित सेवाओं के क्षेत्र में, सहकारिता व स्वरोजगार के क्षेत्रों में, नए सफल प्रयोगों की संख्या वृद्धि भी निरंतर हो रही है । परंतु प्रशासन के क्षेत्र में, सभी क्षेत्रों में चिंतन करनेवाले व दिशा देने वाले बुद्धिधर्मियों में, इस प्रकार की जागृति की और अधिक आवश्यकता है । शासन की ‘स्व’ आधारित युगानुकूल नीति, प्रशासन की तत्पर, सुसंगत व लोकाभिमुख कृति तथा समाज का मन, वचन, कर्म से सहयोग व समर्थन ही देश को परिवर्तन की दिशा में आगे बढ़ाएगा।

परंतु यह संभव न हो पाए, समाज की सामूहिकता छिन्न-भिन्न हो कर अलगाव व टकराव बढे, यह प्रयास भी बढ़ रहे हैं । अपने अज्ञान, अविवेक, परस्पर अविश्वास अथवा असावधानी के कारण समाज में कहीं-कहीं ऐसे अप्रत्याशित उपद्रव व फूट बढ़ती ही जाती दिखाई दे भी रही है । भारत के उत्थान का प्रयोजन विश्व-कल्याण ही रहा है । परन्तु इस उत्थान के स्वाभाविक परिणाम के नाते स्वार्थी, विभेदकारी तथा छल कपट के आधार पर अपने स्वार्थ का साधन करने वाली शक्तियाँ मर्यादित व नियंत्रित होती हैं, इसलिए उनके द्वारा निरंतर विरोध भी चलता है । यद्यपि यह शक्तियाँ किसी न किसी विचारधारा का आवरण ओढ़ लिया करती हैं, किसी मनलुभावन घोषणा अथवा लक्ष्य के लिए कार्यरत होने का छद्म रचती हैं, उनके वास्तविक उद्देश्य कुछ और ही होते हैं । प्रामाणिकता व निःस्वार्थ बुद्धि से काम करने वाले लोग किसी भी विचारधारा के हों, किसी भी तरह का कार्य करते हों, उनके लिए बाधा ही होते हैं ।

आजकल इन सर्वभक्षी ताकतों के लोग अपने आपको सांस्कृतिक मार्क्सवादी या वोक (Woke) यानी जगे हुए कहते हैं । परंतु मार्क्स को भी उन्होंने 1920 दशक से ही भुला रखा है । विश्व की सभी सुव्यवस्था, मांगल्य, संस्कार, तथा संयम से उनका विरोध है । मुठ्ठी भर लोगों का नियंत्रण सम्पूर्ण मानवजाति पर हो इसलिए अराजकता व स्वैराचरण का पुरस्कार, प्रचार व प्रसार वे करते हैं । माध्यमों तथा अकादमियों को हाथ में लेकर देशों की शिक्षा, संस्कार, राजनीति व सामाजिक वातावरण को भ्रम व भ्रष्टता का शिकार बनाना उनकी कार्यशैली है । ऐसे वातावरण में असत्य, विपर्यस्त तथा अतिरंजित वृत्त के द्वारा भय, भ्रम तथा द्वेष आसानी से फैलता है । आपसी झगड़ों में उलझकर असमंजस व दुर्बलता मे फंसा व टूटा हुआ समाज, अनायास ही इन सर्वत्र अपनी ही अधिसत्ता चाहने वाली विध्वंसकारी ताकतों का भक्ष्य बनता है । अपनी परम्परा में इस प्रकार किसी राष्ट्र की जनता में अनास्था, दिग्भ्रम व परस्पर द्वेष उत्पन्न करनेवाली कार्यप्रणाली को मंत्र विप्लव कहा जाता है ।

देश में राजनीतिक स्वार्थों के कारण राजनीतिक प्रतिस्पर्धी को पराजित करने के लिए ऐसी अवांछित शक्तियों के साथ गठबंधन करने का अविवेक है । समाज पहले से ही आत्मविस्मृत होकर अनेक प्रकार के भेदों से जर्जर होकर, स्वार्थों की घातक प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या व द्वेष में उलझा है । इसलिये इन आसुरी शक्तियों को समाज या राष्ट्र को तोड़ना चाहनेवाली अंदरूनी या बाहरी ताकतों का साथ भी मिलता है ।

मणिपुर की वर्तमान स्थिति को देखते हैं तो यह बात ध्यान में आती है । लगभग एक दशक से शांत मणिपुर में अचानक यह आपसी फूट की आग कैसे लग गई ? क्या हिंसा करनेवाले लोगों में सीमापार के अतिवादी भी थे? अपने अस्तित्व के भविष्य के प्रति आशंकित मणिपुरी मैतेयी समाज और कुकी समाज के इस आपसी संघर्ष को सांप्रदायिक रूप देने का प्रयास क्यों और किसके द्वारा हुआ? वर्षों से वहाँ पर सबकी समदृष्टि से सेवा करने में लगे संघ जैसे संगठन को बिना कारण इसमें घसीटने का प्रयास करने में किसका निहित स्वार्थ है ? इस सीमा क्षेत्र में नागाभूमि व मिजोरम के बीच स्थित मणिपुर में ऐसी अशांति व अस्थिरता का लाभ प्राप्त करने में किन विदेशी सत्ताओं को रुचि हो सकती है ? क्या इन घटनाओं की कारण परंपराओं में दक्षिण पूर्व एशिया की भू- राजनीति की भी कोई भूमिका है ? देश में मजबूत सरकार के होते हुए भी यह हिंसा किनके बलबूते इतने दिन बेरोकटोक चलती रही है ? गत 9 वर्षों से चल रही शान्ति की स्थिति को बरकरार रखना चाहने वाली राज्य सरकार होकर भी यह हिंसा क्यों भड़की और चलती रही ? आज की स्थिति में जब संघर्षरत दोनों पक्षों के लोग शांति चाह रहे हैं, उस दिशा में कोई सकारात्मक कदम उठता हुआ दिखते ही कोई हादसा करवा कर, फिर से विद्वेष व हिंसा भड़कानेवाली ताकतें कौनसी हैं ? इस समस्या के समाधान के लिए बहुआयामी प्रयासों की आवश्यकता रहेगी । इस हेतु जहां राजनैतिक इच्छाशक्ति, तदनुरूप सक्रियता एवं कुशलता समय की मांग है, वहीं इसके साथ-साथ दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थिति के कारण उत्पन्न परस्पर अविश्वास की खाई को पाटने में समाज के प्रबुद्ध नेतृत्व को भी एक विशेष भूमिका निभानी होगी । संघ के स्वयंसेवक तो समाज के स्तर पर निरंतर सबकी सेवा व राहतकार्य करते हुए समाज की सज्जनशक्ति का शांति के लिए आवाहन कर रहे हैं । सबको अपना मानकर, सब प्रकार की कीमत देते हुए समझाकर, सुरक्षित, व्यवस्थित, सद्भाव से परिपूर्ण और शान्त रखने के लिए ही संघ का प्रयास रहता है । इस भयंकर व उद्विग्न करनेवाली परिस्थिति में भी ठंडे दिमाग से हमारे कार्यकर्ताओं ने जिस प्रकार वहाँ सबकी संभाल के प्रयास किए उस पर तथा उन स्वयंसेवकों पर हमें गर्व है ।

इस मंत्र विप्लव का सही उत्तर तो समाज की एकता से ही प्राप्त होना है । हर परिस्थिति में यह एकता का भान ही समाज के विवेक को जागृत रखनेवाली वस्तु है । संविधान में भी इस भावनिक एकता की प्राप्ति एक मार्गदर्शक तत्व के नाते उल्लेखित है । हर देश में इस एकता के भाव को पैदा करनेवाला अपना-अपना धरातल अलग-अलग रहता है । कहीं पर उस देश की भाषा, कहीं पर उस देश के निवासियों का समान पूजा या विश्वास, कहीं पर सबका समान व्यापारिक स्वार्थ, कहीं पर एक प्रबल केंद्रीय सत्ता बंधन देश के लोगों को एक सूत्र में बाँधकर रखता है । परंतु मानव निर्मित कृत्रिम आधारों पर अथवा समान स्वार्थ के आधार पर बनी हुई एकता की डोर टिकाऊ नहीं होती । हमारे देश में तो इतनी विविधता है कि इस देश का एक देश के नाते अस्तित्व समझने के लिए भी लोगों को समय लगता है । परंतु हमारा यह देश एक राष्ट्र के नाते, एक समाज के नाते, विश्व के इतिहास के सारे उतार चढ़ाव पार कर आज भी अपने भूतकाल के सूत्र से अविछिन्न सम्पर्क बनाए रखकर जीवित खड़ा है ।

“यूनान मिस्र रोमा सब मिट गए जहां से, अब तक मगर है बाक़ी नामो निशां हमारा,
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा”

भारत के बाहर के लोगों की बुद्धि चकित हो जाए, परंतु मन आकर्षित हो जाए ऐसी एकता की परंपरा हमारी विरासत में हमको मिली है । उसका रहस्य क्या है? नि:संशय वह हमारी सर्व समावेशक संस्कृति है । पूजा, परंपरा, भाषा, प्रान्त, जातिपाती इत्यादि भेदों से ऊपर उठकर, अपने कुटुंब से संपूर्ण विश्वकुटुंब तक आत्मीयता को विस्तार देनेवाली हमारी आचरण की व जीवन जीने की रीति है । हमारे पूर्वजों ने अस्तित्व की एकता के सत्य का साक्षात्कार किया । उसके फलस्वरूप शरीर, मन, बुद्धि की एक साथ उन्नति करते हुए तीनों को सुख देनेवाला, अर्थ, काम को साथ चलाकर मोक्ष की तरफ अग्रेसर करनेवाला धर्मतत्व उनको अवगत हुआ । उस प्रतीति के आधार पर उन्होंने धर्मतत्व के चार शाश्वत मूल्यों (सत्य, करुणा, शुचिता व तपस ) को आचरण में उतारनेवाली संस्कृति का विकास किया । चारों ओर से सुरक्षित तथा समृद्ध हमारी मातृभूमि के अन्न, जल, वायु के कारण ही यह संभव हुआ । इसलिए हमारी भारतभूमि को हमारे संस्कारों की अधिष्ठात्री माता मानकर उसकी हम भक्ति करते हैं । हाल ही में स्वतन्त्रता संग्राम के महापुरुषों का स्मरण अपनी स्वतंत्रता के 75 वे वर्ष के निमित्त हमने किया । हमारे धर्म, संस्कृति, समाज व देश की रक्षा, समय समय पर उनमें आवश्यक सुधार तथा उनके वैभव का संवर्धन जिन महापुरुषों के कारण हुआ, वे हमारे कर्तृत्व सम्पन्न पूर्वज हम सभी के गौरवनिधान हैं तथा अनुकरणीय हैं । हमारे देश में विद्यमान सभी भाषा, प्रान्त, पंथ, संप्रदाय, जाति, उपजाति इत्यादि विविधताओं को एक सूत्र में बाँधकर एक राष्ट्र के रूप में खड़ा करनेवाले यही तीन तत्व (मातृभूमि की भक्ति, पूर्वज गौरव, व सबकी समान संस्कृति) हमारी एकता का अक्षुण्ण सूत्र है ।

समाज की स्थाई एकता अपनेपन से निकलती है, स्वार्थ के सौदों से नहीं । हमारा समाज बहुत बड़ा है । बहुत विविधताओं से भरा है । कालक्रम में कुछ विदेश की कुछ आक्रामक परंपराएँ भी हमारे देश में प्रवेश कर गईं, फिर भी हमारा समाज इन्हीं तीन बातों के आधार पर एक समाज बनकर रहा । इसलिए हम जब एकता की चर्चा करते हैं, तब हमें यह ध्यान रखना होगा कि यह एकता किसी लेन-देन के कारण नहीं बनेगी । जबरदस्ती बनाई तो बार बार बिगड़ेगी । आज के वातावरण में समाज में कलह फैलाने के चले हुए प्रयासों को देखकर बहुत लोग स्वाभाविक रूप से चिंतित हैं, मिलते रहते हैं । अपने आपको हिंदू कहलाने वाले सज्जन भी मिलते हैं, जिनको उनकी पूजा के कारण मुसलमान, ईसाई कहा जाता है, ऐसे भी लोग मिलते हैं । उनकी मान्यता है कि फितना, फसाद व कितान को छोड़कर सुलह, सलामती व अमन पर चलना ही श्रेष्ठता है । इन चर्चाओं में ध्यान रखने की पहली बात यही है कि, संयोग से एक भूमि में एकत्र आए विभिन्न समुदायों के एक होने की बात नहीं है । हम समान पूर्वजों के वंशज, एक मातृभूमि की संताने, एक संस्कृति के विरासतदार, परस्पर एकता को भूल गए । हमारे उस मूल एकत्व को समझकर उसी के आधार पर हमें फिर जुड़ जाना है ।

क्या हमारी आपस में कोई समस्या नहीं है ? क्या हमारी अपने विकास के लिए कोई आवश्यकता, अपेक्षा नहीं है ? क्या पाने विकास के लिए हमारी आपस में स्पर्धा नहीं चलती है ? क्या हममें से सब लोग मन, वचन, कर्म से इन एकात्मता के सूत्रों को मानकर व्यवहार करते हैं ? सब जानते हैं कि सबका ऐसा नहीं है । परंतु ऐसा हो यह इच्छा रखनेवालों को यह कहकर नहीं चलेगा, कि पहले समस्याएँ समाप्त हो, पहले प्रश्नों के समाधान हों, फिर हम एकता की बातों का ध्यान करेंगे । हम सभी को यह समझना पड़ेगा कि हम अपनेपन की दृष्टि अपनाकर व्यवहार प्रारंभ करें तो उसी में से समस्याओं के समाधान भी निकलेंगे । इधर उधर घटनेवाली घटनाओं से विचलित न होते हुए, शांति व संयम से काम लेना पड़ेगा । समस्याएं वास्तविक है परन्तु वह केवल एक जाति, वर्ग के लिए ही नहीं है । उनको सुलझाने के प्रयासों के साथ-साथ आत्मीयता व एकता की मानसिकता भी बनानी पड़ेगी । विक्टिमहुड की मानसिकता, एक दुसरे को अविश्वास के दृष्टि से ही देखना अथवा राजनीतिक वर्चस्व के दांवपेचों से अलग होकर चलना पडेगा । ऐसे कार्यों में राजनीति बाधक ही बनती है । यह कोई शरणागति या मजबूरी नहीं है । युद्धरत दो पक्षों का सीज फायर भी नहीं है । भारत की सभी विविधताओं में परस्पर एकता के जो सूत्र विद्यमान है, उन सूत्रों के अपनेपन की यह पुकार है । अपने स्वतन्त्र भारत के संविधान का भी 75 वा वर्ष चल रहा हैं । वह संविधान हमको यही दिशा दिखाता हैं । पूज्य डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर जी के द्वारा संविधान प्रदत्त करते समय संविधान सभा में जो दो भाषण दिए गए उनका ध्यान करेंगे तो यही सार समझ में आता हैं ।

यह यकायक होनेवाला काम नहीं है । पुराने संघर्षों की कटु स्मृतियाँ अभी भी सामूहिक मन में हैं । विभाजन की दारुण विभीषिका का घाव बहुत गहरा है । उसकी क्रिया प्रतिक्रिया के चलते जो क्षोभ मन में पैदा होता है उसकी रंजिश वाणी व व्यवहार में प्रकट होती है । एक दूसरे की बस्तियों में घर न मिल पाने से लेकर तो एक दूसरे के बारे में ऊँच नीच का, तिरस्कार का व्यवहार होने तक के कटु अनुभव हैं । हिंसा, दंगे, प्रताड़ना आदि की घटनाओं का दोष एक दूसरे पर मढ़ा जाने के प्रसंग भी घटते हैं । कुछ लोगों का करना पूरे समाज का करना है, ऐसे मानकर वाणी और विचार स्वैर छोड़े जाते हैं । आह्वान, प्रति आह्वान दिए जाते हैं, जो उकसावे का काम करते हैं ।

हमको लड़ाकर देश को तोड़ना चाहनेवाली ताकतें भी इसका पूरा लाभ उठाती हैं । देखते-देखते छोटी सी घटना को बड़ा रूप देकर प्रचारित किया जाता है । देश विदेश से चिंता व्यक्त करनेवाले और चेतावनी देनेवाले वक्तव्य करवाए जाते हैं । हिंसा भड़काने वाली “टूल किट्स” सक्रिय हो जाती है और परस्पर अविश्वास और द्वेष को और बढ़ाया जाता है ।

समाज में सामरस्य चाहनेवाले सभी को इन घातक खेलों की माया से बचना पड़ेगा । इन सभी समस्याओं का निदान धीरे धीरे ही निकलेगा । उसके लिए देश में विश्वास का तथा सौहार्द का वातावरण बनना यह पूर्वशर्त है । अपने मन को स्थिर रखकर विश्वास रखते हुए परस्पर संवाद बढ़े, परस्पर समझदारी बढ़े, परस्पर श्रद्धाओं का सम्मान उत्पन्न हो, और सबका मेलजोल बढ़ता चले, इस प्रकार अपने मन, वचन, कर्म रखकर चलना पड़ेगा । प्रचार अथवा धारणाओं से नहीं, वस्तु स्थिति से काम लेना पड़ेगा । धैर्यपूर्वक, संयम और सहनशीलता के साथ, अपने वाणी की तथा कृति की अतिवादिता, क्रोध तथा भय को छोड़कर दृढ़ता पूर्वक, संकल्पबद्ध होकर, लंबे समय तक सतत प्रयास करते रहने की अनिवार्यता है । शुद्ध मन से किए हुए सत् संकल्प तभी पूर्ण होते हैं ।

हर हालत में, कितना भी उकसावा हो, कानून सुव्यवस्था, नागरिक अनुशासन तथा संविधान का पालन करके ही चलना अनिवार्य है । स्वतंत्र देश में यही व्यवहार देशभक्ति की अभिव्यक्ति माना जाता है । माध्यमों का उपयोग करके किए जानेवाले भड़काऊ अप-प्रचार में तथा उसके फलस्वरूप पैदा होने वाली आरोप प्रत्यारोप की प्रतिस्पर्धा में न फसें, माध्यमों का उपयोग समाज में, सत्य व आत्मीयता का प्रसार करने के लिए हो । हिंसा व गुंडागर्दी का सही उपाय संगठित बल सम्पन्न समाज का कानून व सुव्यवस्था की रक्षा में पहल करते हुए शासन-प्रशासन को उचित सहयोग देना यही है ।

आने वाले वर्ष 2024 के प्रारंभिक दिनों में लोकसभा के चुनाव हैं । चुनावी दाँव पेचों में भावनाओं को भड़काकर मतों की फसल काटने के प्रयास अपेक्षित नहीं हैं, परंतु होते रहते हैं । समाज को विभाजित करनेवाली इन बातों से हम बचें । मतदान करना हर नागरिक का कर्तव्य है । उसका अवश्य पालन करें । देश की एकात्मता, अखंडता, अस्मिता तथा विकास के मुद्दों पर विचार करते हुए अपना मत दें ।

वर्ष 2025 से 2026 का वर्ष संघ के 100 वर्ष पूरे होने के बाद का वर्ष है । ऊपर निर्दिष्ट सभी बातों में संघ के स्वयंसेवक तब अपना कदम बढ़ायेंगे, इसकी सिद्धता कर रहे हैं । समाज के आचरण में, उच्चारण में संपूर्ण समाज और देश के प्रति अपनत्व की भावना प्रकट हो । मंदिर, पानी, श्मशान में कहीं भेदभाव बाकी है, तो वह समाप्त हो । परिवार के सभी सदस्यों में नित्य मंगल संवाद, संस्कारित व्यवहार व संवेदनशीलता बनी रहे, बढ़ती रहे व उनके द्वारा समाज की सेवा होती रहे । सृष्टि के साथ संबंधों का आचरण अपने घर से पानी बचाकर, प्लास्टिक हटाकर व घर आँगन में तथा आसपास हरियाली बढ़ाकर हो । स्वदेशी के आचरण से स्व-निर्भरता व स्वावलंबन बढ़े । फिजूलखर्ची बंद हो । देश का रोजगार बढ़े व देश का पैसा देश में ही काम आए । इसीलिए स्वदेशी का भी आचरण घर से ही प्रारंभ होना चाहिए । कानून व्यवस्था व नागरिकता के नियमों का पालन हो तथा समाज में परस्पर सद्भाव और सहयोग की प्रवृत्ति सर्वत्र व्याप्त हो । इन पाँचों आचरणात्मक बातों का होना सभी चाहते हैं । परंतु छोटी-छोटी बातों से प्रारंभ कर उनके अभ्यास के द्वारा इस आचरण को अपने स्वभाव में लाने का सतत प्रयास आवश्यक है । संघ के स्वयंसेवक आनेवाले दिनों में समाज के अभावग्रस्त बंधुओं की सेवा करने के साथ-साथ, इन पाँच प्रकार की सामाजिक पहलों का आचरण स्वयं करते हुए समाज को भी उसमें सहभागी व सहयोगी बनाने का प्रयास करेंगे । समाजहित में शासन, प्रशासन तथा समाज की सज्जनशक्ति जो कुछ कर रही है, अथवा करना चाहेगी, उसमें संघ के स्वयंसेवकों का योगदान नित्यानुसार चलता रहेगा ही ।

समाज की एकता, सजगता व सभी दिशा में निस्वार्थ उद्यम, जनहितकारी शासन व जनोन्मुख प्रशासन स्व के अधिष्ठान पर खड़े होकर परस्पर सहयोगपूर्वक प्रयासरत रहते है, तभी राष्ट्र बल वैभव सम्पन्न बनता है । बल और वैभव से सम्पन्न राष्ट्र के पास जब हमारी सनातन संस्कृति जैसी सबको अपना कुटुंब माननेवाली, तमस से प्रकाश की ओर ले जानेवाली, असत् से सत् की ओर बढ़ानेवाली तथा मर्त्य जीवन से सार्थकता के अमृत जीवन की ओर ले जानेवाली संस्कृति होती है, तब वह राष्ट्र, विश्व का खोया हुआ संतुलन वापस लाते हुए विश्व को सुखशांतिमय नवजीवन का वरदान प्रदान करता है । सद्य काल में हमारे अमर राष्ट्र के नवोत्थान का यही प्रयोजन है ।

“चक्रवर्तियों की संतान, लेकर जगद् गुरु का ज्ञान,
बढ़े चले तो अरुण विहान, करने को आए अभिषेक,
प्रश्न बहुत से उत्तर एक”
“भारत माता की जय”