जैसे ही सुप्रीम कोर्ट ने यह स्पष्ट किया कि उसकी प्राथमिकताएं भिन्न हैं और अयोध्या में राम मंदिर के मामले की तेज सुनवाई का उसका कोई इरादा नहीं, यह मुद्दा जनता के बीच चर्चा का विषय बन गया। अयोध्या के राम मंदिर की तरह, सोमनाथ मंदिर पर भी एक मुस्लिम आक्रांता ने कई बार हमला कर उसे नष्ट किया था। यद्यपि राम मंदिर के ज़मीन की मालिकी का विवाद और सोमनाथ मंदिर के निर्माण की प्रक्रिया भिन्न है फिर भी 1948 में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और डा. कन्हैयालाल मानेकलाल मुंशी के बीच सोमनाथ मंदिर के पुनर्निर्माण को लेकर हुई बहस को आज पढ़ना समीचीन होगा। श्री मुंशी की पुस्तक “पिलग्रिमेज टू फ्रीडम” में दर्ज़ इस अविस्मरणीय बहस के चुने हुए अंश यहाँ प्रस्तुत किए जा रहे हैं (जो लोग पूरी बहस पढ़ना चाहते हैं वे इस पुस्तक के पृष्ठ 559 से 566 को पढ़ सकते हैं)
के.एम. मुंशी लिखते हैं :-
‘……… दिसंबर 1922 में मैं उस भग्न मंदिर की तीर्थ यात्रा पर निकला। वहां पहुंचकर मैंने मंदिर में भयंकर दुरावस्था देखी :- ” अपवित्र, जला हुआ और ध्वस्त, पर फिर भी वह दृढ़ खड़ा था, मानों हमारे साथ की गई कृतघ्नता और अपमान को न भूलने का संदेश दे रहा हो। उस दिन सुबह जब मैंने पवित्र सभामंडप की ओर कदम बढ़ाए तो मंदिर के खंभों के भग्नावशेषों और बिखरे पत्थरों को देखकर मेरे अंदर अपमान की कैसी अग्निशिखा प्रज्जवलित हो उठी थी मैं बता नहीं सकता।”
हमारे राष्ट्रीय नेता दो अलग-अलग विचारों में बंटे थे। सोमनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण उस समय भारत के गृह मंत्री सरदार पटेल द्वारा शुरू किया गया था, जिसे केंद्र सरकार के कैबिनेट मंत्री के. एम. मुंशी ने संपन्न किया था और भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने उसका उद्घाटन किया था।
के.एम. मुंशी लिखते हैं: –
‘नवंबर 1947 के मध्य में सरदार प्रभास पाटन के दौरे पर थे जहां उन्होंने मंदिर का दर्शन किया। एक सार्वजनिक सभा में सरदार ने घोषणा की: “नए साल के इस शुभ अवसर पर हमने फैसला किया है कि सोमनाथ का पुनर्निर्माण करना चाहिए।…..यह एक पवित्र कार्य है जिसमें सभी को भाग लेना चाहिए।”
इसकी चर्चा तत्कालीन केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में हुई।
……… कैबिनेट की बैठक के अंत में जवाहरलाल ने मुझे बुलाकर कहा: “मुझे सोमनाथ के पुनरुद्धार के लिए किया जा रहा आपका प्रयास पंसद नहीं आ रहा। यह हिंदू पुनरुत्थानवाद है।” मैंने जवाब दिया कि मैं घर जा कर जो कुछ भी घटित हुआ है उसके बारे में आपको जानकारी दूंगा।”
लेकिन सवाल यह है कि आखिर पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इसे ‘हिंदू पुनरुत्थानवाद” कहकर विरोध क्यों किया? जबकि के.एम. मुंशी ने इसे “भारत की सामूहिक अंत:चेतना” का नाम दिया और इस प्रयास को लेकर आम लोगों में खुशी की लहर का संकेत दिया। एक ही मुद्दे पर दो अलग-अलग विरोधी दृष्टिकोण क्यों बन जाते हैं? मूलत: यह भारत के दो अलग-अलग विचार हैं। पंडित नेहरू भारत विरोधी नहीं थे, लेकिन भारत के संबंध में उनका नजरिया यूरोपीय सोच पर केन्द्रित था जो भारतीयता से अलग था। वहीं सरदार पटेल, डॉ राजेंद्र प्रसाद, के.एम. मुंशी और अन्य लोगों के भारत संबंधी विचार भारतीयता से निकले थे जिसमें भारत की प्राचीन आध्यात्मिक परंपरा का सार निहित था। महात्मा गांधी ने भी इसे स्वीकृति दी थी, केवल यह शर्त रखी कि मंदिर के पुनर्निर्माणके लिए धनराशि जनता के सहयोग से इकट्ठी की जाए।
के. एम. मुंशी आगे लिखते हैं: –
“24 अप्रैल 1951 को मैंने उन्हें (श्री नेहरू) एक पत्र लिखा था जिसे मैं आगे अक्षरश: पुन: प्रस्तुत कर रहा हूं :-
……… सोमनाथ के संबंध में आपने कैबिनेट में स्पष्ट रूप से मेरा नाम लिया। मुझे खुशी है कि आपने ऐसा किया; क्योंकि मैं अपने किसी भी विचार या कार्य को छिपाना नहीं चाहता, खासकर आपसे, जिसने बीते महीनों में मुझ पर इतना भरोसा किया है।
……… मैंने सोमनाथ को धर्म और संस्कृति के एक केंद्र, एक विश्वविद्यालय और एक कृषिक्षेत्र के तौर पर विकसित करने का बीड़ा उठाया है तो उसके पीछे सीधा-सादा कारण है कि मुझे यह कार्य सौंपा गया है। ऐसे किसी कार्य में सहायता प्रदान करते समय मेरा वकील होना, या एक आम नागरिक या मंत्री होना सिर्फ एक संयोग मात्र है। आप अच्छी तरह जानते हैं कि मेरे ऐतिहासिक उपन्यासों ने गुजरात के प्राचीन इतिहास से आधुनिक भारत का परिचय कराया है और मेरे उपन्यास ‘जय सोमनाथ’ की देश भर में चर्चा है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूं कि भारत की ‘सामूहिक अंत:चेतना” किसी और अन्य कार्य की तुलना में सोमनाथ के पुनर्निर्माण के लिए भारत सरकार के समर्थन के बारे में सुनकर ज्यादा खुश है।
कल आपने ‘हिंदू पुनरुत्थान’ के संदर्भ में बात की। मैं आपके विचारों से अवगत हूँ। मैंने हमेशा उनका सम्मान किया है। मुझे उम्मीद है कि आप मेरे विचारों के साथ भी न्याय करेंगे। मैंने अपने साहित्यिक और सामाजिक कार्यों के माध्यम से हिंदू धर्म के कुछ पहलुओं की आलोचना करते हुए उन्हें नया रूप देने या बदलने का विनम्र निवेदन किया है, इस विश्वास के साथ कि यह छोटा सा कदम ही आधुनिक वातावरण में भारत को एक उन्नत और सशक्त राष्ट्र बना सकता है।
……….एक बात और कहना चाहूंगा कि अतीत पर मेरा विश्वास मुझे वर्तमान में काम करने और भविष्य की ओर आगे बढ़ने की शक्ति दे रहा है। मेरे लिए ऐसी आजादी का कोई मूल्य नहीं हो सकता अगर वह हमें भगवद् गीता से वंचित कर दे, या हमारे जैसे लाखों लोगों के मन में मंदिरों के प्रति बसी आस्था को उखाड़ फेंके और हमारे जीवन के बुनियादी स्वरूप को ही नष्ट कर दे ……..
सोमनाथ में मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा के साथ एक और घटना जुड़ी हुई थी।
जब प्राण-प्रतिष्ठा का समय आया, तो मैंने राजेंद्र प्रसाद (भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति) से संपर्क किया और उनसे समारोह का उद्घाटन करने का निवेदन किया। लेकिन मैंने उनसे यह भी कहा कि अगर वह मेरा निमंत्रण स्वीकार करते हैं तो उन्हें अवश्य आना होगा।
प्रधान मंत्री के साथ मेरा पत्राचार उनसे छिपा नहीं था। उन्होंने वादा किया कि प्रधानमंत्री का जो भी दृष्टिकोण हो, वह आएंगे और प्राण-प्रतिष्ठा भी करेंगे और कहा: ” मैं एक मस्जिद या चर्च के साथ भी ऐसा ही करता अगर मुझे वहां निमंत्रित किया जाता।”
मेरी आशंका सही साबित हुई। जैसे ही यह घोषणा की गई कि डा. राजेंद्र प्रसाद मंदिर का उद्घाटन करने आ रहे हैं, जवाहरलाल ने उनके सोमनाथ जाने का जोरदार विरोध किया। लेकिन राजेंद्र प्रसाद ने अपना वादा पूरा किया। सोमनाथ में दिए उनके भाषण को सभी अखबारों में प्रकाशित किया गया था, लेकिन उसे सरकारी विभागों के दस्तावेजों में दर्ज नहीं किया गया।”
कैसी विडंबना थी कि भारत में उदारवाद और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रतीक के रूप में स्थापित नेहरूजी ने बहुत ही अनुदार और छोटी मानसिकता का परिचय दिया। उनके आदेश पर भारत के महामहिम राष्ट्रपति के भाषण को सरकारी विभागों के दस्तावेजों से काट कर हटा दिया गया! नेहरूजी की यह अनुदार वृत्ति अभारतीय चरित्र का परिचय कराती है।
भारत में 60 साल से एक ही दल के शासन के कारण इस नेहरुवादी अनुदार धारणा को ही सरकार द्वारा संरक्षण, पोषण और समर्थन मिलने के कारण बौद्धिक जगत, शिक्षा संस्थानों और मीडिया में भारत की यही अभारतीय अवधारणा प्रतिष्ठित करने का प्रयास हुआ है। इसलिए अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण के विरोध में उभरने वाली आवाजें मीडिया और बौद्धिक जगत में ज्यादा तेज दिखाई देती हैं। लेकिन करोड़ों हिंदू (और मुस्लिम भी) ऐसे हैं जो भारत की भारतीय अवधारणा को अंतःकरण से मानते हैं जो भारत की एकात्म और समग्र आध्यात्मिक परंपरा के साथ गहराई से जुड़ी है और “भारत की सामूहिक अंत:चेतना” के अनुरूप है, जिसे सरदार पटेल, के.एम. मुंशी, डॉ राजेंद्र प्रसाद, महात्मा गांधी, डॉ राधाकृष्णन, पंडित मदन मोहन मालवीय और आधुनिक स्वतंत्र भारत के कई दिग्गज राष्ट्र निर्माताओं ने अपने वाणी और आचरण से अभिव्यक्त किया है। इस “भारत की सामूहिक अंतःचेतना” की इच्छा, आकांक्षा और संकल्प अयोध्या में भव्य राम मंदिर बनाकर भारत के अपमान को निरस्त कर भारत के गौरव चिन्ह को प्रतिष्ठित करना है।
डॉ. मनमोहन वैद्य सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ