क्षेत्रफल में बहुत छोटा होने पर भी केरल में संघ की सर्वाधिक शाखाएं हैं। इसका बहुतांश श्रेय पांच अक्तूबर, 1919 को ब्रह्मदेश में रंगून के पास ग्राम डास (टिनसा) में जन्मे श्री भास्कर राव कलंबी को है। उनके पिता श्री शिवराम कलंबी वहां चिकित्सक थे।
जब वे 11 वर्ष के थे, तो उनकी मां श्रीमती राधाबाई का और अगले वर्ष पिताजी का निधन हो गया। अतः सब भाई-बहिन अपनी बुआ के पास मुंबई आ गये। मुंबई के प्रथम प्रचारक श्री गोपालराव येरकुंटवार के माध्यम से वे 1935 में शिवाजी उद्यान शाखा में जाने लगे। डा. हेडगेवार के मुंबई आने पर वे प्रायः उनकी सेवा में रहते थे। 1940 में उन्होंने तृतीय वर्ष का प्रशिक्षण लिया। वहां पूज्य डा. जी ने अपना अंतिम बौद्धिक दिया था। इससे उनके जीवन की दिशा निर्धारित हो गयी। मुंबई में वे दादर विभाग के कार्यवाह थे।
1945 में वकालत उत्तीर्ण कर वे प्रचारक बने और उन्हें केरल में कोच्चि भेजा गया। अलग प्रांत बनने पर वे केरल के प्रथम प्रांत प्रचारक बने। तब से 1982 तक वही उनका कार्यक्षेत्र रहा। वे वहां की भाषा, भोजन, वेष और नाम (के.भास्करन्) अपनाकर पूर्णतः समरस हो गये। उन दिनों वहां हिन्दुओं का भारी उत्पीड़न होता था। यदि हिन्दू दुकान पर बैठकर चाय पी रहा हो और ईसाई या मुसलमान आ जाए, तो उसे खड़े होना पड़ता था। ऊपर लपेटी हुई लुंगी भी नीचे करनी पड़ती थी। शासन पूरी तरह हिन्दू विरोधी था ही। 1951 में ईसाइयों ने केरल में 105 मंदिर तोड़े थे। ऐसे माहौल में काम करना सरल न था।
पर भास्कर राव जुझारू प्रकृति के थे। उन्होंने मछुआरों में रात्रि शाखाएं शुरू कीं। इससे हिन्दू ईंट का जवाब पत्थर से देने लगे। शुक्रवार को विद्यालयों में नमाज की छुट्टी होती थी। उन्होंने इस समय में विद्यालय शाखाओं का विस्तार किया। मछली के कारोबार में मुसलमान प्रभावी थे। वे शुक्रवार को छुट्टी रखते थे। इससे हिन्दुओं को भारी हानि होती थी। भास्करराव ने ‘मत्स्य प्रवर्तक संघ’ बनाकर इस एकाधिकार को तोड़ा।
उन दिनों कम्यूनिस्ट भी शाखा पर हमले करते थे। स्वयंसेवकों ने उन्हंे उसी शैली में जवाब दिया। कई स्वयंसेवक मारे गये, कई को लम्बी सजाएं हुईं; पर भास्कर राव डटे रहे। एक बार तो कम्युनिस्टों को सत्ता से हटाने के लिए उन्होंने कांग्रेस का साथ दिया। सरकार बनने पर कांग्रेस नेता व्यालार रवि ने संघ कार्यालय आकर उन्हें धन्यवाद दिया।
उन्होंने शहरों या पैसे वालों की बजाय मछुआरे, भूमिहीन किसान, मजदूर, छोटे कारीगर, अनुसूचित जाति व जनजाति के बीच काम बढ़ाया। इससे हजारों संघर्षशील कार्यकर्ता निर्माण हुए। इसके बाद उन्होंने जनसंघ, विद्यार्थी परिषद, मजदूर संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बाल गोकुलम्, मंदिर संरक्षण समिति जैसे कामों के लिए भी कार्यकर्ता उपलब्ध कराये। छुआछूत के माहौल में उनके प्रयास से गुरुवायूर मंदिर में सबका प्रवेश संभव हुआ। उन्होंने कामकोटि के शंकराचार्य जी की अनुमति से सभी वर्गों के लिए पुजारी प्रशिक्षण शुरू किया।
1981 में हृदयाघात तथा 1983 में बाइपास सर्जरी के बाद 1984 में उन्हें ‘वनवासी कल्याण आश्रम’ के अ.भा.संगठन मंत्री का कार्य दिया गया। उन्होंने सबसे कहा कि ईसाइयों की तरह वनवासियों की गरीबी और अशिक्षा का ढिंढोरा बंद कर उनके गौरवशाली इतिहास और परम्पराओं को सामने लाएं। इससे वनवासियों का स्वाभिमान जागा और उनमें से ही सैकड़ों पूर्णकालिक कार्यकर्ता बने। खेल प्रतियोगिता से भी हजारों जनजातीय युवक व युवतियां काम में जुड़े। जबलपुर में उन्होंने ‘वनस्वर अकादमी’ की स्थापना की।
1996 में कैंसरग्रस्त हो जाने से उन्होंने धीरे धीरे दायित्वों से मुक्ति ले ली। मुंबई में चिकित्सा के दौरान जब उन्हें लगा कि अब ठीक होना संभव नहीं है, तो वे आग्रहपूर्वक अपने पहले कार्यक्षेत्र कोच्चि में आ गये। 12 जनवरी, 2002 को कोच्चि के संघ कार्यालय पर ही उन्होंने संतोषपूर्वक अंतिम सांस ली।