राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक परम पूज्य माधवराव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य ‘गुरुजी’ का जन्म युगाब्द 5007 माघ कृष्ण एकादशी (उत्तर में पौष) मूल नक्षत्र में तदनुसार सन् १९ फरवरी १९०६ दिन सोमवार ब्रह्म मुहूर्त में नागपुर में अपने मामा श्री आभा रायकर जी के घर हुआ । तिथि, नक्षत्र इत्यादि विचार कर इनके माता-पिता (श्रीमती लक्ष्मी बाई – श्री सदाशिव) ने इनका नाम ‘माधव’ रखा । बचपन में इन्हें परिवार में प्यार से ‘मधु’ नाम से पुकारा जाता था । मधु की प्रारंभिक शिक्षा रायपुर, चन्द्रपुर, भण्डारा और खण्डवा में हुई । वर्ष 1922 में सोलह वर्ष की अवस्था में माधव ने दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की । इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए उन्होंने ‘हिस्लाप कॉलेज’ (नागपुर ) में प्रवेश लिया । वर्ष 1924 में माधव उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए काशी आ गए । उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में बी.एससी. (प्राणिशास्त्र) में प्रवेश लिया और यहीं से वे 1929 में एम.एससी. भी उत्तीर्ण हुए । उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में कुछ वर्षों तक अध्यापन कार्य भी किया । गुरुजी के अध्यापकीय जीवन के बारे में ‘गुरुजी के जीवन–चरित्र’ के लेखक श्री रंगा हरि जी लिखते हैं कि – ‘गरीब छात्रों को वे आवश्यक ग्रंथ मंगवाकर देते थे । उनके वेतन का सिंहभाग उसी में निकल जाता था । जो शेष बचता था उसी से वह सानंद अपना काम का चलाते थे । विश्वविद्यालय में प्राध्यापक के रूप में वह धीरे–धीरे प्रेमांकित आदर के पात्र बने । वहाँ के वातावरण में पनपे छात्र–समूह ने उनको ‘गुरुजी’ अभिधान से पुकारना प्रारम्भ किया । कालांतर में प्राध्यापक की अस्थाई नौकरी समाप्त होकर नागपुर वापस आने पर भी वह अभिधान उनके नाम से जुड़ा रहा ।
सन् 1932 ई. में गुरुजी का नागपुर में डॉक्टर हेडगेवार से परिचय हुआ । डॉक्टर जी को उनसे बड़ी अपेक्षाएं थीं । श्री रामकृष्ण परमहंस ने जैसे नगेंद्र (विवेकानंद) को, वैसे ही डॉक्टर जी ने गुरु जी को परखा था । सन् 1940 में डॉक्टर हेडगेवार के गोलोकवास के बाद गुरूजी सरसंघचालक बने । अगले 33 वर्षों (1940 से 1973) तक उन्होंने देश के कोने–कोने की यात्रा की और संघ को विस्तार देने लिए अथक परिश्रम किया । संघ के ज्यादातर प्रमुख संगठन उनके संघ प्रमुख रहने के दौरान ही अस्तित्व में आए ।
जब गुरुजी ने संघ की बागडोर संभाली उस समय देश की स्थिति बहुत नाजुक बनी हुई थी । सर्वत्र स्वराज की चर्चा चली चल रही थी । संघ जैसे संगठन की प्रासंगिकता पर अनेक शंकाएं और जिज्ञासाएं उठाई जा रहीं थीं । श्री गुरुजी शांति और सुसंगत ढंग से समझाते थे कि किस प्रकार एक सुसंगठित समाज ही स्वराज को सुरक्षित रखकर उसके फलों का आस्वादन कर सकता है । देशव्यापी दंगों और हिंदुओं के ग्राम–संपत्ति एवं मान बिंदुओं पर आक्रमण की भयावह परिस्थिति में श्री गुरुजी वीरोचित मुद्रा में दृष्टिगोचर हुए । उन्होंने अविराम पूरे देश की यात्रा की– विशेषत: पंजाब और सिंध– की और जनता के मनोबल को दुर्दम्य बनाया तथा त्याग और बलिदान की चेतना जगाई । उनके आह्वान का स्वयंसेवकों ने जिस प्रकार प्रतिसाद दिया और नारकीय इस्लामिक उन्माद से हिंदू भाइयों और बहनों के प्राण व सम्मान की रक्षा की, इसकी रोमांचक गाथा श्री गुरुजी के प्रेरणादायक नेतृत्व की उज्जवल साक्षी है । श्री गुरुजी के फौलादी नेतृत्व की परीक्षा एक बार फिर हुई, जब केंद्र की कांग्रेस सरकार ने, तुच्छ दलीय उद्देश्य से, महात्मा गांधी की हत्या का फायदा उठाकर सन् 1948 में संघ पर प्रतिबंध लगाया, अत्यंत भड़काऊ और विद्वेषपूर्ण प्रचार किया । श्री गुरुजी की गिरफ्तारी के विरुद्ध संघ बड़ी निर्भीकता से उठ खड़ा हुआ और सत्याग्रह के उन्मेष की बेला में संपूर्ण देश में स्वयंसेवकों की गिरफ्तारियाँ और यातनाओं ने राष्ट्र के अंतःकरण को झकझोर दिया । फलतः सरकार को प्रतिबंध उठाना पड़ा । पूज्य गुरुजी सदैव राष्ट्र–निर्माण के लिए तत्पर रहते थे, जिसके अनेक उदाहरण हमें देखने को मिलते हैं उदाहरण के रूप में – 1947 के देश-विभाजन के बाद जब कश्मीर का भाग्य अंधकार में लटक रहा था तब श्री गुरुजी, सरदार पटेल के कहने पर कश्मीर के महाराजा से मिले और भारत में अविलंब मिलने के लिए उनको तैयार किया । आगे फिर जब पाकिस्तान ने वर्ष १९६५ ई. में भारत पर आक्रमण किया तब श्री लाल बहादुर शास्त्री के निमंत्रण पर पूज्य गुरुजी ने सर्वदलीय बैठक में भाग लिया और प्रभावी प्रतिरोधात्मक रणनीति निर्धारित करने में सहायता की । पूज्य गुरुजी के सरसंघचालक रहते हुए जब हिंदू राष्ट्र के नवोत्थान की संकल्पना को मूर्त रूप देने में संघ की नवीन भूमिका स्पष्ट शब्दों में निरूपित करने का कठिन कार्य सामने आया, उन्होंने उस भूमिका का भी सम्यक् निर्वहन किया । राष्ट्र पुनर्निर्माण के प्रत्येक क्षेत्र में कार्यरत– अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद्, भारतीय मजदूर संघ, विश्व हिंदू परिषद्, वनवासी कल्याण आश्रम, विद्या भारती तथा सेवा कार्य जैसे अनेक संगठनों का निर्माण पूज्य गुरुजी के मार्गदर्शन में हुआ । भारतीय समाज तथा प्रबुद्ध वर्ग से समान रूप से निकट संपर्क होने के कारण श्री गुरुजी राष्ट्र की धड़कन से सदैव परिचित रहते थे । इस कारण कई बार आने वाली घटनाओं का उन्हें पूर्वाभास हो जाता था, जिसकी वह शासकों तथा समाज व लोगों को चेतावनी भी देते रहते थे । छठवें दशक के प्रारम्भ में जब सरकार ने अपनी पूर्व वचनबद्धता के कारण भाषावार प्रान्त रचना के लिए एक तीन सदस्यीय आयोग की नियुक्ति की, उस समय श्री गुरुजी एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने इसके संभावित परिणामों के बारे में चेतावनी दी और एकात्मक शासन प्रणाली के लिए आग्रह किया । तत्कालीन समय में उत्तर–पूर्वी राज्यों में फैली अशांति को लेकर उन्होंने ईसाई मिशनरियों की उन राष्ट्र विघातक गतिविधियों की शासनाधीशों को चेतावनी दी, जिसके कारण आज देश को भारी मूल्य चुकाना पड़ रहा है । पांचवे दशक के मध्य में जब हमारे राजनेता ‘हिंदी–चीनी भाई–भाई’ का राग अलाप रहे थे, तब श्री गुरुजी ने सार्वजनिक रूप से बताया था कि इस थोथे शब्द–जाल के धोखे में न आएं । अपनी सीमाओं की सुरक्षा की सुदृढ़ व्यवस्था करें । उन्होंने पहले से ही चीन के दुष्ट मनसूबों को भांप लिया था कि वह हमको झांसे में रखकर सीमा पार से हमारे ऊपर आक्रमण करना चाहता है । सन् १९६१ की जनगणना से पहले पंजाब समस्या प्रारंभिक अवस्था में थी, पूज्य गुरुजी का विवेकपूर्ण आह्वान था कि जनगणना में सहजधारी हिंदू अपनी मातृभाषा पंजाबी लिखाएं तथा सभी सिख बंधु अपने को हिंदू लिखाएं ।
आज हम यह देख सकते हैं कि पूज्य गुरुजी की प्रत्येक चेतावनी ‘भविष्यवाणी’ सिद्ध हुई तथा उसकी अवहेलना के कैसे दुष्परिणाम निकले हैं । श्री गुरुजी की प्रथम चिंता का विषय हमेशा यही रहा कि हिंदू समाज में आतंरिक विघटन एवं विभेद समाप्त हों । शंकर, मध्व, रामानुज तथा अन्य पीठाधीष्ठित धर्माचार्यों को सहमत कर लेने वाले, उनके अनुनय–विनय का ही परिणाम था कि उन्होंने पहले कर्नाटक विश्व हिंदू परिषद् के उडुप्पी सम्मेलन में तथा बाद में प्रयागराज के १९६६ में हुए विश्व हिंदू सम्मेलन में सर्वसम्मति से छुआछूत, जातिवाद, वर्गवाद आदि बुराइयों को समाप्त करने की घोषणा की और हिंदू समाज का समरसतापूर्ण एकता के लिए आह्वान किया ।
इस प्रकार हिंदू राष्ट्र के नवोत्थान के आदर्श के प्रति असंदिग्ध प्रतिबद्धता होने के कारण उन्होंने एक महान ध्येय से अनुप्राणित, अनुशासित विशाल संगठन खड़ा करने में सफलता पाई । अपनी मृत्यु से पूर्व श्री बाला साहब देवरस ( मधुकर दत्तात्रय देवरस ) के सुयोग्य हाथों में अपना उत्तराधिकार लिखित रूप में उन्होंने सौंप दिया । संघ के सरकार्यवाह रहे हो.वे.शेषाद्रि जी ने गुरुजी के कार्यों को जिस तरीके से रेखांकित किया है, वह संघ के द्वितीय सरसंघचालक के प्रति स्वयंसेवकों की भावनाओं से बिलकुल मेल खाता है; उन्होंने लिखा कि- “नए राष्ट्रवाद के पोषक के तौर पर श्री गुरुजी ने अपने शानदार व्यक्तित्व और कार्यों से राष्ट्रीय जीवन में विलक्षण ऊर्जा का संचार किया ।” आचार्य विनोबा भावे पूज्य गुरुजी के बारे में लिखते हुए कहते हैं कि– “श्री गुरुजी संकीर्ण मानसिकता से ग्रस्त नहीं थे । वह हमेशा राष्ट्रहित के आदर्शों से ओत–प्रोत रहे । वे अन्य धर्मों, जैसे ईसाइयत और इस्लाम को भी उतना ही सम्मान देते थे और हमेशा यह अपेक्षा करते थे कि भारत में कोई भी उपेक्षित न रहने पाए ।”
पूज्य गुरुजी की इहलीला ५ जून १९७३ को समाप्त हुई । वह अपने पीछे छोड़ गए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सतत विकासोन्मुखी प्रेरणादायक परम्परा । संक्षेप में उनका गतिशील कर्त्तव्य उनके आशा और विश्वास से युक्त अंतिम सन्देश में मूर्तिमन्त हो उठा, जो उन्होंने १९७३ ई. की नागपुर की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के सम्मुख दिया था कि – अंततोगत्वा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने उद्देश्य में सफल होकर रहेगा । उनके शब्द थे – “सर्व दूर विजय ही विजय है ?”
शेषांक चौधरी, (शोधार्थी)
हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय