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भाषाई चिंतन के सन्दर्भ में ‘देव-वाणी संस्कृत’ को लेकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का चिंतन

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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पहचान एक गैर-राजनीतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन के रूप में विख्यात है । मानव-सभ्यता के उदय के साथ भाषा-चेतना के उद्भव और विकास का आरम्भ हुआ । यही कारण है कि भाषा मात्र संप्रेषण और ज्ञानवृद्धि का माध्यम ही नहीं वरन् उन सामाजिक और सांस्कृतिक मूल्यों की वाहक भी है, जो मानव-सभ्यता का आधार-स्तम्भ हैं । भाषा किसी भी व्यक्ति एवं समाज की पहचान का एक महत्वपूर्ण घटक तथा उसकी संस्कृति की सजीव संवाहिका होती है ।

डॉ. मोतीलाल गुप्त अपनी पुस्तक ‘आधुनिक भाषा विज्ञान’ में भाषा और समाज के अंतर्संबंधो को रेखांकित करते हुए लिखते हैं- “समाज में व्यक्ति का सबसे अधिक सशक्त उपकरण भाषा ही है । व्यक्ति समाज के माध्यम से भाषा का अर्जन करता है और समाज के हेतु ही भाषा का प्रयोग करता है । व्यक्तियों को समाज में गुम्फित करने का उत्कृष्ट साधन भाषा ही है । भाषाहीन समाज की कल्पना तक नहीं की जा सकती । समाज को, राष्ट्र को समेटे रखने का प्रधान उपादान भी भाषा है । भाषा के प्रश्न को लेकर राष्ट्र टूट सकता है अथवा संगठित किया जा सकता है । भाषा का स्थान समाज और राष्ट्र में प्रमुख है ।”1

सामाजिक विकास की धारा में भाषा का योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है । भाषा को समाज से विलग नहीं किया जा सकता; यही कारण है कि भाषा विविध सामाजिक उपकरणों से प्रभावित होती रहती है । मानव-भाषा के निर्माण एवं विकास में सामाजिक जीवन की आवश्यकता ने अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है । इसके साथ-साथ यह बात भी उतनी ही सत्य है कि समाज के उन्नयन में भाषा की अप्रतिम भूमिका रही है । समाज-निर्माण के लिए यह अनिवार्य शर्त होती है कि- उसकी संगठनात्मक इकाइयाँ परस्पर एक-दूसरे से सम्बद्ध हों । इन समस्त इकाइयों को जोड़ने में भाषा की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है । डॉ. कपिलदेव द्विवेदी के अनुसार- “भाषा समन्वय सूत्र है । प्रत्येक भाषा, स्वभाषा-भाषी को एकता के सूत्र में बाँधे रखती है । अतः वे भिन्न होते हुए भी एकत्व की अनुभूति करते हैं । ऋग्वेद में तो भाषा को राष्ट्री अर्थात् राष्ट्र-निर्मात्री तथा संगमनी अर्थात् संबद्ध करने वाली कहा गया है- “अहं राष्ट्री संगमनी वसुनाम” (१०.१२५.३)2

भाषा हमारी संस्कृति का अंग है । कोई भी संस्कृति अपना विकास और परिवर्तन कैसे करती रही है ? यह उस संस्कृति की वाहक बनने वाली भाषा के इतिहास से ज्ञात होगा । “राजनैतिक व्यवस्था, धार्मिक विधान, दार्शनिक चिंतन, कलात्मक सृजन, यान्त्रिक-व्यवस्था विधिगत नियम एवं भाषा, सब संस्कृति के अविभाज्य घटक हैं ।…..संस्कृति के अन्य घटक अपनी अभिव्यक्ति के लिए भाषा पर आश्रित रहते हैं । संस्कृति, भाषा में सबसे अधिक सटीक रूप में अभिव्यक्त होती है । भाषा के माध्यम से संस्कृति के घटक संगठित होते हैं, परिभाषित होते हैं तथा व्याख्यायित होते हैं ।”3

भाषा संस्कृति की निर्मिति में एक सहयोगी कारक होती है, वह स्वयं संस्कृति नहीं है । भाषा द्वारा हम अपनी संस्कृति को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं । डॉ. रामविलास शर्मा के अनुसार- “संस्कृति, सामाजिक और प्राकृतिक परिवेश पर विजय पाने का एक साधन है । उसमें मनुष्य के भाव, विचार, संस्कार, संवेदनाएं सभी शामिल हैं । भाषा भी ऐसी ही संस्कृति है ।”4

इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भाषा, संस्कृति की अभिव्यक्ति का माध्यम है; राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ इसीलिए सतत इस बात के लिए प्रयासरत रहा है कि भारतीय संस्कृति पर परतन्त्रता काल में थोपी गई विदेशी भाषाओं के बरक्स भारतीय समाज की भाषाओं को वरीयता दी जानी चाहिए । स्वतन्त्रता प्राप्ति के पन्द्रह वर्षों बाद भी जब देश में प्रशासनिक कार्यों की माध्यम भाषा कोई भारतीय भाषा न होकर विदेशी भाषा (अंग्रेजी) ही बनी रही तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेतृत्व ने इस पर अपनी आपत्ति दर्ज कराई । जिसकी अभिव्यक्ति आर.एस.एस. की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा के 1965 के ‘भाषा नीति’ नामक प्रस्ताव में देखी जा सकती है, जिसमें कहा गया है कि- “स्वतन्त्रता की यह माँग है कि देश का प्रशासन हमारी अपनी भाषा में चलाया जाए । विदेशी भाषा राष्ट्र की प्रतिभा को अभिव्यक्त नहीं कर सकती, न ही उसके विकास में सहायक हो सकती है । इसके निरन्तर अक्षुण्ण प्रयोग से केवल विदेशी विचार का प्रभुत्व और विदेशी शासन में हुए राष्ट्र के क्षरण का अब भी न रुकना ही प्रकट होता है । यह खेद की बात है कि स्वतन्त्रता के इतने लंबे समय बाद भी देश प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर अंग्रेजी से हमारी भारतीय भाषाओं में सहज परिवर्तन के लिए तैयार नहीं है । इसके विपरीत अंग्रेजी का प्रयोग बढ़ रहा है । ऐसी स्थिति बनी नहीं रहने दी जानी चाहिए ।”5 इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बिना किसी किन्तु परन्तु के, स्पष्ट रूप से देश के प्रशासनिक कार्य-संस्कृति में किसी विदेशी भाषा के चलन का मुखर विरोधी तथा भारतीय भाषाओं के अनुप्रयोग का प्रखर हिमायती है । इस विरोध और हिमायत का कारण सिर्फ और सिर्फ यही है कि; किसी गैर-देशी-भाषा में हम अपनी स्वदेशी संस्कृति की अभिव्यक्ति को कैसे सम्भव कर सकते हैं ? यदि संस्कृति को संरक्षित और संवर्धित करना है तो स्व-भाषा की अनुप्रयुक्ति अपरिहार्य है । हिन्दी नवजागरण के अग्रदूत भारतेंदु हरिश्चंद्र भी कहते हैं कि– ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल ।’ आर.एस.एस. का भी स्पष्ट रूप से यही मानना है कि हमारी उन्नति का मूलाधार वह भाषा कदापि नहीं हो सकती, जो हमारी संस्कृति के अभिव्यक्ति की माध्यम भाषा नहीं है । आर.एस.एस. बहुविध ज्ञान को अर्जित करने हेतु विभिन्न भाषाओं को सीखने का हिमायती है, परन्तु अपने देश की राष्ट्रभाषा के रूप में किसी विदेशी भाषा को प्रतिष्ठित करना आर.एस.एस. को स्वीकार्य नहीं है ।

संस्कृत भारत की सभ्यता और संस्कृति के मूल को परिभाषित करने वाली भाषा है । सम्पूर्ण मानव-सभ्यता को आगे बढ़ाने में संस्कृत भाषा ने अनेक प्रकार के योगदान दिए हैं । संस्कृत को केवल पूजा-पाठ या धार्मिक-कर्मकांडों की भाषा मानना दरअसल एक गलत अवधारणा है । संस्कृत केवल भाषा न होकर पूर्ण ज्ञान की एक प्रणाली भी है । ऋषि-मुनियों, विद्वानों ने अपने शोध के विस्तृत अध्ययन के जरिए संस्कृत को समृद्ध बनाने में योगदान दिया है । संस्कृत में लिखे गए योग, आयुर्वेद, वेदान्त, व्याकरण, ज्योतिष और वाङ्मय के विपुल ज्ञान की उपयोगिता सर्वविदित है । इसके अलावा संस्कृत जिन प्रवृत्तियों का पोषण करती है, वह बिना किसी पूर्वाग्रह के लोक-कल्याण को वर्धित करने वाली हैं । सृष्टि केन्द्रित विश्व-दृष्टि, प्रकृति के साथ अटूट सामंजस्य, मानवीय स्वभाव तथा स्वरूप में उदात्तता, चैतन्य का विस्तार, पुरुषार्थ तथा सृजनात्मकता, आत्म-परिष्कार की सतत आकांक्षा तथा संभावना जिस तरह संस्कृत की रचनाओं में अभिव्यक्त हुई है वैसा उदाहरण कदाचित् अन्यत्र दुर्लभ है । संस्कृत का रिश्ता भारत की उस अनूठी संस्कृति, परम्परा और संस्कारों से रहा है, जिसके मूल में ‘सर्वे भवन्तु सुखिनः’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना है और वह समूची दुनिया को ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ यानी ‘अन्धकार से प्रकाश की ओर चलने’ का संदेश देती है । संस्कृत वह भाषा है, जिसने हमें संस्कार दिए- अपनापे के, विश्व-बंधुत्व के । यह वह भाषा है जिसके बगैर भारतीय भाषाओं का इतिहास लिखा ही नहीं जा सकता । हमारी तमाम भाषाओं को भाषागत इकाई के रूप में यदि किसी भाषा ने आबद्ध करके रखा हुआ है तो वह ‘संस्कृत’ ही है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक माधवराव सदाशिव गोलवलकर उपाख्य ‘गुरुजी’ कहते हैं- “वस्तुतः हमारी सभी भाषाएँ, चाहे वह तमिल हो या बंगला, मराठी हो या पंजाबी, हमारी राष्ट्रभाषाएँ हैं । वे सभी भाषाएँ और उप-भाषाएँ खिले हुए पुष्पों के समान हैं, जिससे हमारी राष्ट्रीय संस्कृति की वही सुरभि प्रसारित होती है । इन सभी के लिए प्रेरणा-स्रोत भाषाओं की रानी देववाणी संस्कृत रही है ।”6

संस्कृत वैदिक काल की भाषा रही है; उसमें वेद आदि अनेक धार्मिक ग्रन्थों का प्रणयन हुआ है, इसीलिए इसे ‘देवभाषा’ की संज्ञा से भी अभिहित किया जाता है । कालान्तर में इस ‘देवभाषा’ शब्द का यह अर्थ भाषित किया गया कि- संस्कृत सिर्फ ‘देवताओं की भाषा’ थी, इसीलिए इसे ‘देवभाषा’ की संज्ञा दी गई थी । यह कभी आमजन की भाषा नहीं रही । उसके समर्थन में यह तर्क दिया जाता है कि पालि व प्राकृत भाषाएँ (तद्युगीन) जनभाषा के रूप में प्रचलित थीं । इस तर्क के विरुद्ध मेरी सम्मति डॉ. रामविलास शर्मा के उस तथ्य के साथ है, जिसमें वे लिखते हैं- “यदि पालि बोलचाल की भाषा कभी थी, तो यह आश्चर्य की बात है कि उसमें संस्कृत के समान काव्य, नाटक आदि न रचे गए । बौद्ध कवि अश्वघोष ने ‘बुद्धचरित’ और ‘सौंदरानंद’ महाकाव्य संस्कृत में ही लिखे । उन्हीं का लिखा हुआ ‘सारिपुत्र-प्रकरण’ संस्कृत का प्राचीनतम नाटक कहा गया है ।”7

साहित्य समाज का दर्पण होता है । यदि संस्कृत जनभाषा नहीं थी तो अश्वघोष जैसा विद्वान अपने सृजन की माध्यम भाषा किसी ऐसी भाषा को क्यों बना रहा था, जो आमजन की भाषा ही न थी । डॉ. रामविलास शर्मा आगे लिखते हैं कि- “…..भगवान बुद्ध और महावीर के उपदेश उनकी अपनी भाषा में नहीं मिलते । जिस भाषा में मिलते हैं, वह पूर्व की न होकर (जहाँ इन दोनों की जन्म-भूमि और कर्म-भूमि थी) पश्चिम की प्राकृत है । लेकिन प्राकृत चाहे पूर्व की हो, चाहे पश्चिम की, उनके शब्द-भण्डार और व्याकरण मूलतः संस्कृत के हैं । कुछ विद्वानों ने प्राकृत व्याकरणों को इस बात के लिए दोषी ठहराया है कि उनके प्रभाव से प्राकृतें कृत्रिम हो गईं; लेकिन प्राकृतों का व्याकरण तो संस्कृत का ही अनुसरण करता है । यदि वास्तव में प्राकृतें- बोलचाल की भाषाएँ- होतीं तो उनमें व्याकरणगत भेद भी बहुत ज्यादा होते ।”8

यह अलग बात है कि, आजकल संस्कृत आमजन के बोलचाल की भाषा लगभग न के बराबर है; मगर अभी भी कुछ ऐसे स्थान हैं, जहाँ लोग संस्कृत का उपयोग बोलचाल की भाषा के रूप में करते हैं । जो इस तथ्य को परिपुष्ट करते हैं कि कभी संस्कृत इस देश के आमजन के दैनन्दिन व्यवहार की भाषा रही होगी । कर्नाटक के शिमोगा जिले के ‘मत्तूरू’ गाँव के साधारण जीवन-शैली वाले लोग संस्कृत में ही बात करते हैं । लगभग गाँव का प्रत्येक ग्रामवासी संस्कृत भाषा में ही बात करता है । दक्षिण भारत में कर्नाटक का यह गाँव देश में इकलौता गाँव नहीं है । राजस्थान के बांसवाड़ा जनपद का ‘कनौदा’ गाँव, मध्यप्रदेश के राजगढ़ जिले का ‘झिरी’ गाँव और ओडिशा के क्योंझर जिले का ‘श्यामसुंदरपुर’ गाँव भी इसी परंपरा में आते हैं ।9

संघ के द्वितीय सरसंघचालक म.स.गोलवलकर संस्कृत भाषा को देश की राष्ट्रीय एकता के लिए एक संयोजक सूत्र के रूप में देखते हैं ।10

डॉ. रामविलास शर्मा का भी मत ऐसा ही है । वे लिखते हैं “…संस्कृत द्वारा देश का जो सांस्कृतिक एकीकरण हुआ वह पालि और अन्य प्राकृतों द्वारा नहीं हुआ, न शायद हो सकता था । संस्कृत के माध्यम से इस देशव्यापी अभ्युत्थान में विभिन्न प्रदेशों और मतों के लोगों ने भाग लिया । एक नहीं सब प्राकृतें मिलाकर भी संस्कृति का ऐसा व्यापक माध्यम नहीं बन पायीं ।”11

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश की ‘एक भाषा’ की समस्या के निराकरण के लिए ‘संस्कृत’ का पैरोकार है । उसका कारण सिर्फ एक है कि- संस्कृत से लगभग सभी भारतीय भाषाएँ अपना उपजीव्य लेती हैं, जिसके कारण हर भाषा-भाषी संस्कृत को थोड़ा-बहुत समझने में सक्षम होता है (किसी अन्य भाषा की अपेक्षा) । डॉक्टर बाबा साहब भीमराव अंबेडकर भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के समान संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाये जाने के पक्षधर थे ।12

संघ की संस्कृत भाषा के प्रति यह प्रखर पक्षधरता इसलिए है क्योंकि वह प्राचीन भाषा में मौजूद ज्ञान की अपरिमित सम्पदा से आम भारतीय मानस को सम्बद्ध रखना आवश्यक मानता है । डॉक्टर अंबेडकर की पक्षधरता भी इसी कारण से संस्कृत के प्रति थी । संस्कृत के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बाबासाहब भीमराव अंबेडकर के विचार लगभग एक समान हैं । संघ के समान बाबा साहब का भी मानना था कि- “संस्कृत पूरे देश को भाषाई एकता के सूत्र में बाँध सकने वाली इकलौती भाषा हो सकती है । उन्होंने इसे देश की आधिकारिक भाषा बनाने का सुझाव दिया था । संविधान सभा में बाबा साहब ने राष्ट्रभाषा के रूप में संस्कृत का समर्थन किया था । वे इस बात से आशंकित थे कि स्वतन्त्र भारत कहीं भाषाई संघर्ष की भेंट न चढ़ जाये । देश में भाषा को लेकर कोई विवाद न हो, इसलिए जरूरी है कि राजभाषा के रूप में ऐसी भाषा का चुनाव हो, जिसका सभी भाषा-भाषी आदर करते हों । बाबा साहब जानते थे कि यह सम्भावना सभी भारतीय भाषाओं की जननी संस्कृत में ही हो सकती है ।13

उन्हें भरोसा था कि संस्कृत के नाम पर कहीं कोई विवाद नहीं होगा; इसीलिए सारी भारतीय भाषाओं में से किसी एक को राष्ट्रभाषा बनाने पर बहस जब पूरी हो गई तो डॉक्टर अंबेडकर ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा के रूप में रखने का प्रस्ताव रखा ।”14

डॉक्टर अंबेडकर का स्पष्ट मानना था कि संस्कृत के ग्रंथों का अनुशीलन किए बिना भारतीयता और भारतीय संस्कृति के संबंध में फैली अनेक भ्रांतियों का निराकरण संभव नहीं है । जब लोग संस्कृत पढ़ेंगे तो ऐसी विद्रूपताएँ स्वतः ध्वस्त हो जाएंगी ।15

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का भी सुविचारित मत है कि- “संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारत की नवोदित पीढ़ी को वंचित करने का अर्थ होगा; भारतीय-संस्कृति एवं प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान की अमूल्य निधि से उसे दूर रखना । इससे नि:संदेह भारतीय अस्मिता को भारी क्षति पहुँचेगी ।”16

एक जमाने में ज्ञान के समस्त अनुशासनों में जिस भाषा का प्रभुत्व था, वह आज बेहद चिन्ताजनक स्थिति में है । देश में संस्कृत भाषा-भाषी लोगों की संख्या लगातार घट रही है । विविध कारणों से समय के साथ लोगों की संस्कृत से दूरी बनती गई । देश की वर्ष- 2011 की जनगणना के अनुसार- ‘संस्कृत भाषा-भाषी (जिन्होंने अपनी प्रथम भाषा के रूप में संस्कृत को चुना) लोगों की संख्या मात्र 24,821 यानी कुल आबादी के अनुपात में 0.002 प्रतिशत है ।’ मन्त्र में संस्कृत है, पूजा-पाठ में संस्कृत है, धर्म-कर्म में संस्कृत है लेकिन, आम जुबान से संस्कृत गायब है । संस्कृत भाषा की इस सोचनीय अवस्था में सुधार के प्रयास करने के बजाय वर्ष 1986 ई. में तत्कालीन केंद्र सरकार ने ‘राष्ट्रीय शिक्षा नीति-1986’ लाकर उसमें संस्कृत भाषा के शिक्षण को विद्यालयीन पाठ्यक्रम से लगभग समाप्त कर दिया । जिससे यदि कोई अध्येता ऐच्छिक विषय के रूप में संस्कृत का अध्ययन करना चाहे तो इसकी व्यवस्था विद्यालयीन स्तर पर अनुपलब्ध हो गई । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने, सरकार द्वारा कारित, संस्कृत की इस उपेक्षा पर गंभीर चिंता एवं विरोध प्रकट किया । संघ का मानना था कि- “सरकार की संस्कृत भाषा के शिक्षण को विद्यालयीन पाठ्यक्रम से हटाने की नीति का दुष्परिणाम यह होगा कि उच्च शिक्षा-स्तर पर संस्कृत की ऐच्छिक विषय के रूप में व्यवस्था होने पर भी उसके लिए छात्र मिलने कठिन हो जाएंगे तथा विश्वविद्यालयीन स्तर पर संस्कृत के अध्ययन एवं शोध-कार्य को क्षति पहुँचकर उसका विकास अवरुद्ध हो जाएगा ।”17

वर्तमान में कुछेक सरकारी प्रयास इस भाषा के संरक्षण हेतु चलाए जा रहे हैं; मगर बात बनती हुई नहीं दिख रही है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी संस्कृत भाषा को आधुनिक ज्ञान और सामान्य जनमानस के प्रयोग की भाषा में तब्दील करने को अपने एक प्रकल्प ‘संस्कृत भारती’18 के माध्यम से प्रयासरत है । संस्कृत जानने व सीखने के लिए संस्कृत भारती लघु अवधि के कार्यक्रम व पाठ्यक्रम तैयार करती है । देश के विभिन्न विश्वविद्यालयों- ‘भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान’,हैदराबाद, ‘हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय’, ‘जयपुर विश्वविद्यालय’ तथा ‘उस्मानिया विश्वविद्यालय’- जैसे कई विश्वविद्यालयों में गहन शोध के उद्देश्य से संस्कृत की कार्यशालायें आयोजित की जा रही हैं । संस्कृत भारती की गतिविधियाँ अमेरिका में भी चल रही हैं, जहाँ कैलिफोर्निया में इसका मुख्यालय है । इसके साथ ही यह प्रकल्प इंग्लैंड, स्विट्जरलैंड, जर्मनी आदि देशों में भी संस्कृत शिक्षण के माध्यम से लोगों को भारतीयता और भारतीय संस्कृति से परिचित करवाने का कार्य कर रहा है ।

सन्दर्भ सूची-:

  1. उद्धरित, ‘भाषा विज्ञान और हिन्दी भाषा’- डॉ. सुधाकर कलावडे, साहित्य रत्नालय-कानपुर, संस्करण- प्रथम,1979, पृष्ठ संख्या- २६
    2. उद्धरित, ‘भाषा विज्ञान का रसायन’- कैलाशनाथ पाण्डेय, लोकभारती प्रकाशन, संस्करण- प्रथम,२०१२, पृष्ठ संख्या- ८८
    3. ‘भाषा एवं भाषा विज्ञान’- डॉ. महावीरसरन जैन, लोकभारती प्रकाशन-इलाहाबाद, संस्करण- प्रथम,१९८५, पृष्ठ संख्या- ८०
    4. ‘भाषा और समाज’- डॉ. रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण- सातवाँ,२०१०, पृष्ठ संख्या- ४०६
    5. अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा, १९६५: भाषानीति; आरएसएस आर्काइव https://www.archivesofrss.org/Resolutions.aspx
    6. ‘विचार नवनीत’ (‘बंच ऑफ़ थॉट’ का हिन्दी संस्करण) – माधवराव सदाशिव गोलवलकर, अनुवादक-भारत भूषण आर्य), ज्ञान गंगा प्रकाशन-जयपुर, संस्करण- षष्ठ,२०१८, पृष्ठ संख्या- ११३
    7. ‘भाषा और समाज’- डॉ. रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण- सातवाँ,२०१०, पृष्ठ संख्या- २२९
    8. ‘भाषा और समाज’- डॉ. रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, संस्करण- सातवाँ,२०१०, पृष्ठ संख्या- २२९
    9. https://www.hktbharat.com/sanskrit-language-higher-education-in-sanskrit-sanskrit-education-history-of-sanskrit-sanskrit-bhasha-ka-mahatva-sanskrit-bhasha-ka-ithihas%20.html (15 Dec. 2022, 12:01 pm)
    10. ‘विचार नवनीत’- माधवराव सदाशिव गोलवलकर, पृष्ठ संख्या- ११४
    11. ‘भाषा और समाज’- डॉ. रामविलास शर्मा ,पृष्ठ संख्या- २३१
    12. https://www.abplive.com/news/india/ambedkar-had-proposed-sanskrit-as-national-language-cji-bobde-1901667/amp (15Dec. 2022, 11:45pm)
    13. “संस्कृत भाषा एवं साहित्य भारत की अमूल्य सांस्कृतिक धरोहर, प्राचीन भारतीय ज्ञान-विज्ञान का भण्डार तथा राष्ट्रीय एकात्मता का सुदृढ़ सूत्र है । यह भारतीय भाषाओं की ही नहीं विश्व की भी अनेक भाषाओं की जननी है । विश्व के आधुनिक भाषाविदों ने संस्कृत को सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक भाषा के रूप में मान्य किया है । कम्प्यूटर विज्ञान ने भी इसकी सर्वश्रेष्ठता स्वीकार की है ।” अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा,१९८९: ‘केन्द्र सरकार द्वारा संस्कृत की उपेक्षा’; आरएसएस आर्काइव https://www.archivesofrss.org/Resolutions.aspx
    14. https://www.jansatta.com/sunday-magazine/jansatta-ravivari-artical-ambedkar-was-a-strong-supporter-of-sanskrit/644281/ (16 Dec. 2022, 11:46pm)
    15. ‘डॉ. अम्बेडकर संस्कृत के ग्रन्थों को पढ़कर ही इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि आर्य भारत में कहीं बाहर से नहीं आये बल्कि आर्य और द्रविड़ दोनों भारत के मूल वंशज हैं ।’ (https://www.jansatta.com/sunday-magazine/jansatta-ravivari-artical-ambedkar-was-a-strong-supporter-of-sanskrit/644281/ ) (16 Dec. 2022, 11:46pm)
    16. अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा,१९८९:‘केन्द्र सरकार द्वारा संस्कृत की उपेक्षा’; आरएसएस आर्काइव https://www.archivesofrss.org/Resolutions.aspx
    17. अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा,१९८९: ‘केन्द्र सरकार द्वारा संस्कृत की उपेक्षा’; आरएसएस आर्काइव https://www.archivesofrss.org/Resolutions.aspx
    18. Samskrita Bharati- Samskrita Bharati (founded 1981) is a movement for the continuing protection, development and propagation of the Sanskritam language as well as the literature, tradition and the knowledge systems embedded in it. Samskrita Bharati is a non-profit organization comprised of a large team of very dedicated and enthusiastic volunteers who take the knowledge of Sanskrit to all sections of society irrespective of race, gender, region, religion, caste, age etc. (https://samskritabharati.in/ )
  • शेषांक चौधरी
    (
    शोधार्थी, हैदराबाद केन्द्रीय विश्वविद्यालय)